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________________ १२F नन्दीसूत्रम् छाया-अथ किं तत् सिद्धकेवलज्ञानम् ? सिद्ध केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाअनन्तर सिद्धकेवलज्ञानं च, परम्परसिद्ध केवलज्ञानञ्च ॥सूत्र २०॥ पदार्थ से किं तं सिद्ध केवलनाणं-वह सिद्धकेवलज्ञान कितने प्रकार का है ? सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं-सिद्धकेवलज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, तंजहा-जैसे कि अणंतरसिद्धकेवलनाणं च-अनन्तर सिद्धकेवलज्ञान और परंपर सिद्धदेहलनाणं च-परंपर सिद्धकेवलज्ञान । भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया, गुरुदेव ! वह सिद्धकेवलज्ञान कितने प्रकार का है ? गुरुदेव जी उत्तर में बोले, भद्र ! वह दो प्रकार का वर्णित है, यथा-१ अनन्तर सिद्धकेवलज्ञान और २ परंपर सिद्ध केवलज्ञान। . टीका-जैन दर्शन के अनुसार तंजस और कार्मण शरीर से आत्मा का सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। वैदिक परम्परा सूक्ष्म शरीर जिसे लिङ्ग तथा कारण शरीर भी कहते हैं, उससे जब आत्मा अलग हो जाता है, उसी को मोक्ष माना है, वास्तव में भाव दोनों का एक ही है । सिद्ध भगवान् एक की अपेक्षा से सादि-अनन्त है और बहुतों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, उनका अस्तित्व सदा काल भावी है। इन्सान से ही भगवान बनता है। ऐसा कोई सिद्ध नहीं, जो इन्सान से भगवान न बना हो । आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही सिद्धावस्था है । अपूर्ण से पूर्ण होना ही सिद्धत्व है। अरिहन्त भगवान जो कि जीवन्मुक्त और आप्त होते हैं, उन्होंने अपने केवलालोक से सिद्ध भगवन्तों को प्रत्यक्ष किया है, तदनु उन्होंने सिद्धों का स्वरूप, एवं अस्तित्व बताया है, वे सत् हैं, गगनारविन्द की तरह नितान्त असत् नहीं हैं । जिनमें ज्ञान और आनन्द अविनाशी हों, उन्हें सच्चिदानन्द कहते हैं । सिद्ध बनने की योग्यता भव्यों में है, अभव्यों में नहीं ? ____इस सूत्र में सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद किए हैं-एक वे जिन्हें सिद्ध हुए एक ही समय हुआ है और दूसरे वे जिन्हें सिद्ध हुए दो से लेकर अधिक समय हो गए हैं। उन्हें क्रमशः अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्पर सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं। वृत्तिकार ने जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए सिद्धप्राभृत ग्रंथ के आधार से सिद्धस्वरूप का उल्लेख किया है, जैसे १. आस्तिकद्वार—सिद्ध के अस्तित्व होने पर ही आगे विचार किया जाता है। २. द्रव्यद्वार-अर्थात् जीवद्रव्य का प्रमाण, वे एक समय में कितने सिद्ध हो सकते हैं ? ३. क्षेत्रद्वार-सिद्ध किस क्षेत्र में विराजित हैं ? इसका विशेष वर्णन । ४. स्पर्शद्वार-सिद्ध कितना स्पर्श करे ? इसका विवेचन । ५. कालद्वार-जीव कितने काल तक निरन्तर सीमें ? ६. अन्तरद्वार-सिद्धों का विरह काल कितना है ? ७. भावद्वार--सिद्धों में कितने भाव पाए जाते हैं ? ८. अल्पबहुत्वद्वार-सिद्ध, कौन, किससे न्यूनाधिक है ? ये आठ द्वार हैं, प्रत्येक द्वार पर १५ उपद्वार क्रमशः घटाए हैं, वे उपद्वार ये हैं-१ क्षेत्र, २ काल, ३ गति, ४ वेद, ५ तीर्थ, ६ लिङ्ग, ७ चारित्र, ८ बुद्ध, ६ ज्ञान, १० अवगहना, ११ उत्कृष्ट, १२ अन्तर, .
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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