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सिद्ध केवलज्ञान
१३ अनुसमय, १४ संख्या, १५ अल्पबहुत्व । सबसे पहले इन १५ उपद्वारों का अवतरण आस्तिक द्वार पर करते हैं, जैसे
१. आस्तिकद्वार १. क्षेत्रद्वार-अढाई द्वीप के अन्तर्गत १५ कर्मभूमि से सिद्ध होते हैं । साहरण आश्रयी दो समुद्र, अकर्मभूमि, अन्तरद्वीप, ऊर्ध्व दिशा में पण्ड्रकवन, अवोदिशा में अधोगामिनी विजय से भी जीव सिद्ध होते हैं।
२. कालद्वार-अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे के उतरते समय' और चौथा आरा सम्पूर्ण तथा पांचवें आरे में ६४ वर्ष तक सिद्ध हो सकते हैं। उत्सर्पिणीकाल के तीसरे आरे में और चौथे आरे में कुछ काल तक सिद्ध हो सकते हैं । तत्पश्चात् अकर्मभूमिज प्रारम्भ हो जाते हैं।
३. गतिद्वार-केवल मनुष्य गति से ही सिद्ध हो सकते हैं, अन्य गति से नहीं । पहली चार नरकों से, पृथ्वी-पानी और बादर वनस्पति से, संज्ञी तिर्यंच-पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवताओं से निकले हुए जीव मनुष्य गति में सिद्ध हो सकते हैं ।
४. वेदद्वार-वर्तमान काल की अपेक्षा अवगतवेदी सिद्ध होते हैं। पहिले चाहे उन्होंने तीनों वेदों का अनुभव किया हो। . ५. तीर्थद्वार-जब किसी भी तीर्थंकर का शासन चल रहा हो, उसमें से प्रायः अधिक सिद्ध होते हैं। कोई-कोई अतीर्थ में भी सिद्ध हो जाते हैं।
६. लिङ्गद्वार- द्रव्य से स्वलिङ्गी, अन्यलिङ्गी और गृहलिङ्गी सिद्ध होते हैं, किन्तु भाव से स्वलिङ्गी ही सिद्ध होते हैं, अन्य नहीं ।
७. चारित्रद्वार-कोई सामायिक, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात से, कोई सामायिक, छेदोपस्थापनीय, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात से तथा कोई पाँचों चारित्रों से सिद्ध होते हैं। वर्तमान काल में केवल यथाख्यात चारित्र से सिद्ध होते हैं, किन्तु यथाख्यात चारित्र के बिना कोई भी सिद्ध नहीं होते।
८. बुद्धद्वार-प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित इन तीनों से सिद्ध होते हैं ।
है. ज्ञानद्वार-वर्तमान की अपेक्षा केवल केवलज्ञान से सिद्ध होते हैं। किन्तु पूर्वानुभव की अपेक्षा से मति, श्रुत और केवलज्ञान से । कोई मति, श्रुत- अवधि और केवलज्ञान से तथा कोई मति, श्रुत, अवधि मनःपर्यव और केवलज्ञान से सिद्ध होते हैं ।
१०. अवगहनाद्वार-जघन्य दो हाथ, मध्यम सात हाथ और उत्कृष्ट ५०० धनुष्य की अवगहना वाले सिद्ध होते हैं।
११. उत्कृष्टद्वार--कोई सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद प्रतिपाति होकर, देशोन अर्द्धपुदगल-परा- वर्तन होने पर सिद्ध होते हैं और कोई अनन्त काल के बाद सिद्ध होते हैं। कोई असंख्यात काल के बाद
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१. तीसरे आरे के ३ वर्ष ८|| मास शेष रहने पर श्री ऋषभदेव भगवान का निर्वाण हुआ। चौथे आरे में २३ तीर्थकर हुए हैं, जब चौथे आरे के ३ वर्ष ८|| मास शेष रह गए, तब श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ।