SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान की है, जैसे कि “षिधू संराद्वौ, सिध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्चते, यथा सिद्ध श्रोदनः स च कर्मसिद्धादिभेदादनेकविधः, अथवा सितं बद्धं ध्मातं-भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः, पृषोदरादय इति रूपसिद्धिः, सकलकर्मविनिर्मुको मुक्तावस्थामुपगत इत्यर्थः ।" इस का भाव यह है कि जिन्ह आत्माओं ने आठ प्रकार के कर्मों को भस्मीभूत कर दिया है अथवा जो सकल कर्मों से विनिर्मुक्त होगए हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । यद्यपि सिद्ध शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत होता है, जैसे कि कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध, विद्यासिद्ध, मंत्रसिद्ध, योगसिद्ध, आगमसिद्ध, अर्थसिद्ध, यात्रासिद्ध, तपःसिद्ध, कर्मक्षयसिद्ध, तदपि प्रसंगानुसार यहाँ कर्मक्षयसिद्ध का ही अधिकार है । उक्त प्रकार के सिद्धों का निम्नलिखित गाथा में वर्णन किया है, जैसे कि "कम्मे सिप्पे य विज्जाए, मंते जोगे य श्रागमे । श्रथ जत्ता श्रभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय || " भवस्थ केवलज्ञानी अरिहंत, आप्त, जीवन्मुक्त कहलाते हैं और सिद्ध केवलज्ञानी को पारंगत और विदेहमुक्त कहा जाता है । १२७ भारतीय दर्शनों में मीमांसकों का कहना है कि जीव अल्पज्ञ है और अल्पज्ञ ही रहेगा, वह कभी भी सर्वज्ञ नहीं बन सकता और न सर्वज्ञ सर्वदर्शी विशेषण युक्त कोई ईश्वर ही है । पातंजल योगदर्शन, न्याय और वैशेषिक दर्शन ये सर्वज्ञवाद को मानते हैं, किन्तु साथ ही आत्मा के विशिष्ट गुणों से रहित होने को ही निर्वाण या मुक्त होना भी मानते हैं । इसी प्रकार सांख्यदर्शन और बौद्ध दर्शन का अभिमत है। वे मुक्तावस्था में सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करते और न अल्पज्ञता को । उन की इस विषय में यह दोषापत्ति है कि ज्ञान से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, जब आत्मा में ज्ञान सर्वथा लुप्त हो जाता है तब उस में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते । यही मान्यता बौद्धों की है, किन्तु जैन दर्शन की यह मान्यता है कि केवल ज्ञानसादि-अनन्त है, वह एक समय विशिष्ट संयम और तप की प्रक्रिया से आत्मा में प्रकट होता है, फिर कभी भी नष्ट नहीं होता । केवलज्ञान राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-मोह का और मल-आवरण-विक्षेप का जनक नहीं है बल्कि इन सब के नष्ट होने पर ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । वह आत्मलक्ष्यी होता है । वीतराग दशा में ज्ञान खेद का कारण नहीं बनता, बल्कि परमानन्द का कारण होता है । इस सूत्र से यह मान्यता बिल्कुल स्पष्ट एवं निःसन्देह सिद्ध होती है कि मुक्तात्मा में केवलज्ञान विद्यमान है, वह दीपक की तरह बुझने वाला नहीं और सूर्य की तरह अस्त होने वाला भी नहीं है, वह आत्मा का निजगुण है । केवलज्ञान जैसे शरीर में प्रकाश करता है, वैसे ही शरीर के सर्वथा अभाव होने पर भी । क्योंकि कर्मक्षयजन्य गुण कभी भी लुप्त नहीं होते। ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति, इन गुणों के पूर्ण विकास को ही कैवल्य कहते हैं । ये गुण, आत्मा की तरह अविनाशी सहभावी अरूपी और अमूर्त है । अत: सिद्धों में इन गुणों का सद्भाव अनिवार्य हैं । सिद्ध केवल ज्ञान मूलम् - से किं तं सिद्धकेवलनाणं ? सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहाअणंतरसिद्धकेवलनाणं च परंपरसिद्ध केवलनाणं च ।। सूत्र २० ।।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy