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________________ १२६ नन्दीसूत्रम् और २ सिद्ध केवल ज्ञान । ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का सर्वथा उन्मूलन करने से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। वह ज्ञान मलावरण विक्षेप से सर्वथा रहित एवं पूर्ण है । सूर्य लोक में जो प्रकाश है, वह जैसे अन्धकार से मिश्रित नहीं है, प्रकाश ही प्रकाश है, वैसे ही केवलज्ञान भी एकान्त प्रकाश ही है। वह एक बार उदय होकर फिर कभी अस्त नहीं होता। वह इन्द्रिय, मन और बाह्य किसी वैज्ञानिक साधन की सहायता से निरपेक्ष है। विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो केवल ज्ञान की नि:सीम ज्योति को बुझा दे । वह ज्ञान सादि अनंत है और सदा एक जैसा रहने वाला है तथा उससे बढ़ कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान मनुरा भव में उत्पन्न होता है, अन्य किसी भव में नहीं। उस की अवस्थिति देह और विदेह दोनों अवस्थाओं में पाई जाती है। अत एव सूत्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-वह ज्ञान दो प्रकार का होता है-भवस्थ केवल ज्ञान और सिद्ध केवल ज्ञान । आयुपूर्वक मनुष्य देह में अवस्थित केवल ज्ञान को भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि- "तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्योऽन्यत्र केवलोत्पादाभावाद्, भवे तिष्ठन्तिइति भवस्थाः" देहरहित आत्मा को सिद्ध कहते हैं, वे भी केवलज्ञान युक्त होते हैं । अतः सूत्रकार ने सिद्ध केवल ज्ञान शब्द का प्रयोग किया है। भवस्थ केवल ज्ञान के दो भेद किए हैं- सयोगि भवस्थ-केवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । वीर्यात्मा (आत्मिक शक्ति) से आत्म प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, उस से जो मन, वचन और काय में व्यापार होता है, उसी को योग कहते हैं । वह योग पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । चौदहवें गुणस्थान में योग निरुन्धन होने से करण योग नहीं पाया जाता । आध्यात्मिक साधना के चौदह स्थान-दर्जे-स्टेजें हैं, जिन को जैन परिभाषा में गुणस्थान कहते हैं। बारहवें गुणस्थान में वीतराग दशा तो उत्पन्न हो जाती है, किन्तु उस में केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। अत: उसे प्रथम समय-सयोगिभवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं । जिसे तेरहवें गुणस्थान में रहते हुए अनेक समय होगए हैं, उसे अप्रथम समय-सयोगिभवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं। अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर पहुंच गया है, उसे चरम समय सयोगिभवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं और जो तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में अभी नहीं पहुंचा, उसे अचरम समय सयोगि-भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं। अयोगिभवस्थ केवल ज्ञान के दो भेद हैं। जिस केवलज्ञानालोकित आत्मा को चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश किए पहला ही समय हुआ है, उसे प्रथम समय-अयोगि भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं और जिसे प्रवेश किए अनेक समय होगए हैं, उसे अप्रथम समय-अयोगि भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं। अथवा जिसे सिद्ध होने में एक समय शेष रहता है, उसे चरम समय-अयोगि-भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं और जिसे सिद्ध होने में अनेक समय रहते हैं, ऐसे चौदहवें गुणस्थान के स्वामी को अचरम समय अयोगि भवस्थ केवल ज्ञान कहते हैं। अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, तावन्मात्र काल पर्यन्त चौदहवें गुणस्थान की स्थिति है, अधिक नहीं । इसी को दूसरे शब्दों में शैलेशी अवस्था भी कहते हैं । तत्पश्चात् आत्मा सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है । जो आठ कर्मों से सर्वथा विमुक्त होगए हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं, अजर, अमर, अविनाशी, परब्रह्म, परमात्मा, सिद्ध, ये उनके पर्यायवाची नाम हैं। वे सिद्ध, राशिरूप में सब एक हैं और संख्या में अनन्त हैं । उन में जो केवलज्ञान है, उसे सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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