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केवलज्ञान
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गुणपच्चइ - क्षान्ति आदि इसकी प्राप्ति के कारण हैं, और यह चरित्तव – चारित्रयुक्त अप्रमत्त संयत को ही होता है । से तं- इस प्रकार यह मणपज्जवनाणं – देश प्रत्यक्ष मनः पर्यवज्ञान का विषय है ।
भावार्थ – पुनः मनः पर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है । तथा क्षान्ति आदि इस ज्ञान की प्राप्ति के कारण हैं और यह चारित्रयुक्त अप्रमत्त संयत को ही होता है । इस प्रकार यह देशप्रत्यक्ष मनः पर्यवज्ञान का विषय है | सूत्र १८ ॥
टीका - इस गाथा में उक्त विषय का उपसंहार किया गया है, प्रस्तुत गाथा में जन शब्द का प्रयोग किया है, जायत इति जनः इस व्युत्पत्ति के अनुसार न केवल जन का अर्थ मनुष्य ही है, बल्कि समनस्क जीव को भी जन कहते हैं । मनुष्यलोक जो कि दो समुद्र और अढाई द्वीप तक ही सीमित है । उस मर्यादित क्षेत्र में यावन्मात्र मनुष्य, तियंच, संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा देव हैं, उनके मन में जो सामान्य और विशेष संकल्प-विकल्प उठते हैं, वे सब मनः पर्यवज्ञान के विषयान्तर्गत हैं । इस गाथा में गुणपच्चइयं तथा चरितव ये दो पद महत्त्वपूर्ण हैं । अवधिज्ञान जैसे भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दो प्रकार का होता है, वैसे मनः पर्यवज्ञान भवप्रत्ययिक नहीं है, केवल गुणप्रत्ययिक ही है । अवधिज्ञान तो श्रावक और प्रमत्त संयत को भी हो जाता है, किन्तु मनः पर्यवज्ञान, चारित्रवान को ही प्राप्त हो सकता है। जो ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्त-संयत हैं, वस्तुतः एकान्त चारित्र से उन्हीं का जीवन ओत-प्रोत होता है । अतः गाथा में चरित्तव शब्द का प्रयोग किया है । इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं " गुणाः क्षान्त्यादयस्ते प्रत्ययः कारणं यस्य तद्गुणप्रत्ययः चारित्रवतोऽप्रमत्तसंयतस्य” इससे साधक को साधना में अग्रसर होने के लिए मधुर प्रेरणा मिलती है । इस प्रकार मनःपर्यवज्ञान का तथा विकलादेश प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय समाप्त हुआ || सूत्र १८ ।।
केवलज्ञान
मूलम् - से किं तं केवलनाणं ? केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - भवत्थकेवलनाणं च, सिद्धकेवलनाणं च ।
से किं तं भवत्थ - केवलनाणं ? भवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - सजोगिभवत्थ-केन्नलनाणं च योगिभवन्थ-केवलनाणं च ।
से किं तं सजोगिभवत्थ - केवलनाणं ? सजोगिभवत्थ - केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा — पढमसमय- सजोगिभवत्थ- केवलनाणं च, अपढमसमय-सजोगिभवत्थ- केवलनाणं च । ग्रहवा चरमसमय- सजोगिभवत्थ - केवलनाणं च अचरमसमय-सजोगिभवत्थ- केवलनाणं च । से त्तं सजोगिभवत्थ - केवलनाणं ।
से किं तं अजोगिभवत्थ - केवलनाणं ? अजोगिभवत्थ - केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं,