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नन्दीसूत्रम्
है, अनाकार उपयोग नहीं। उस साकार के ही यहाँ दो भेद किए गए हैं. सामान्य और विशेष, ये ही दोनों भेद ऋजुमति के भी होते हैं, इसी प्रकार विपुलमति के भी दो भेद होते हैं । यहां सामान्य का अर्थ विशिष्ट साकार उपयोग और विशेष का अर्थ है, विशिष्तर साकार उपयोग, ऐसा समझना चाहिए । मनःपर्यवज्ञान से जानने और देखनेरूप दोनों क्रियाएं होती हैं।' ऋजुमति को दर्शनोपयोग और विपुलमति को ज्ञानोपयोग समझना भी भूल है । क्योंकि जिसे विपुलमतिज्ञान हो रहा है, उसे ऋजुमति ज्ञान भी हो, ऐसा होना नितान्त असंभव है। क्योंकि इन दोनों के स्वामी एक ही नहीं, दो भिन्न-भिन्न स्वामी होते हैं।
अवधिज्ञान और मन पर्यवज्ञान में अन्तर (१) अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है।
(२) अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र तीन लोक है, जब कि मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों के मानसिक संकल्प विकल्प ही हैं।
(३) अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों में पाए जाते हैं, किन्तु मनःपर्यव के स्वामी लंब्धिसम्पन्न संयत ही हो सकते हैं, अन्य नहीं।।
(४) अवधिज्ञान का विषय कुछ पर्याय सहित रूपी द्रव्य हैं, जब कि मनःपर्यव ज्ञान का विषय उसकी अपेक्षा अनन्तवां भाग है।
(५) अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विभङ्गज्ञान के रूप में परिणत हो सकता है, जब कि मन:पर्यव ज्ञान के होते हुए मिथ्यात्व का उदय होता ही नहीं अर्थात् मनःपर्यव ज्ञान का विपक्षी कोई अज्ञान नहीं है।
(६) अवधिज्ञान परभव में भी साथ जा सकता है, जब कि मनःपर्यव ज्ञान इहभविक ही होता है, जैसे संयम और तप ।
मनःपर्थवज्ञान का उपसंहार
मूलम्-मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं ।
माणुसखित्त निबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ ॥६५॥
से तं मणपज्जव नाणं ।।सूत्र १८॥ छाया-मनः पर्यवज्ञानं पुनर्जनमनपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् ।
मानुषक्षेत्रनिबद्ध, गुणप्रत्ययिकं चारित्रवतः ॥६५॥
तन्मनःपर्यवज्ञानम् ।।सूत्र १८॥ पदार्थ-पुण–पुन: मणपज्जवनाणं-मनःपर्यवज्ञान माणुसखित्त निबद्धं-मनुष्य क्षेत्र में रहे हए जण-मणपरिचितिग्रस्थ पागडणं-प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है। तथा
१. देख प्रज्ञापन सूत्र का पश्यत्ता पद