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________________ १२१ मनः पर्यवज्ञान चित् रूपी भी होता है । एकान्त अरूपी ज्ञान क्षायिक भाव में होता है, जैसे औदयिक भाव में जीव कथंचित् रूपी होता है, वैसे ही क्षायोपशमिक ज्ञान भी कथंचित् रूपी होता है, सर्वथा अरूपी नहीं । जैसे विशेष पठित व्यक्ति भाषा को सुनकर कहने वाले के भावों को और पुस्तकगत अक्षरों को पढ़ कर लेखक के भावों को समझ लेता है, वैसे ही अन्य अन्य निमित्तों से भाव समझे जा सकते हैं। क्योंकि क्षायोपशमिक भाव सर्वथा अरूपी नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न देख रहा है, उसमें क्या दृश्य देख रहा है ? किससे क्या बातें कर रहा है ? क्या खा रहा है और क्या सूंघ रहा है ? उस स्वप्न में हर्षान्वित हो रहा है या शोकाकुल ? उस सुप्त व्यक्ति की जंसी अनुभूति हो रही है, उसे याथातथ्य मनः पर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हैं । जैसे स्वप्न एकान्त अरूपी नहीं है, वैसे ही क्षायोपशमिक भाव में मनोगत भाव भी अरूपी नहीं होते । जैसे स्वप्न में द्रव्य क्षेत्र, काल-भाव साकार हो उठते हैं, वैसे ही चिन्तन-मनन – निदिध्यासन के समय मन में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव साकार हो उठते हैं। इससे मनःपर्यंव ज्ञानी को जानने-देखने में सुविधा हो जाती है । जो मनोवैज्ञानिक शिक्षा के आधार पर दूसरे के भावों को समझते हैं, वह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ही विषय है, मनः पर्यव ज्ञान का नहीं, क्योंकि मनोवैज्ञानिक को पहले यत् किंचित् शिक्षा लेनी पड़ती है, उसके आधार पर वह भी सन्मुख स्थित व्यक्ति के यत् किंचित् मनोगत भावों को ही जानता है, दूर देश में रहे हुए प्राणी क्या संकल्प-विकल्म कर रहे हैं ? इसको ज्ञान, मानस शास्त्री को नहीं हो सकता, किन्तु मनःपर्यव- ज्ञानी दूर निकट, दीवार पर्वत कुछ भी हो, मन की पर्यायों को जान सकता है, वह भी अनुमान से ही नहीं अपितु प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा, जब कि मनोवैज्ञानिक अनुमान के द्वारा जानता है न कि प्रत्यक्ष प्रमाण से । एक श्रुत ज्ञान से काम लेता है, जब कि दूसरा मनः पर्यवज्ञान से, यही दोनों में अन्तर है । अप्रतिपाति अवधिज्ञानी तथा परमावधिज्ञानी भी सलेश्यी मानसिक भावों को यत्किंचित् प्रत्यक्ष कर सकता है । ऋजुमति और विपुलमति में अंतर जैसे दो व्यक्तियों ने ऐम्० ए० की परीक्षा दी और दोनों उत्तीर्ण हो गए। विषय दोनों का एक ही था; उनमें से एक परीक्षा में सर्व प्रथम रहा और दूसरा द्वितीय श्रेणी में, इनमें दूसरे की अपेक्षा पहले को अधिक ज्ञान है, दूसरे को कुछ न्यून । बस इसी तरह ऋजुमति की अपेक्षा से विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर, अधिकतर एवं विपुलतर होता है । जैसे जगते हुए पचास केण्डल पावर बल्व को अपेक्षा सौ कैण्डलपावर का प्रकाश वितिमिरतर होता है, वैसे ही विपुलमति मनः पर्यवज्ञान, ऋजुमति की अपेक्षा वितिमिरतर होता है । वितिमिरतम ज्ञानप्रकाश तो केवलज्ञान में ही होता है । ऋजुमति कदाचित् प्रतिपाति भी होसकता है, किन्तु विपुलमति को उसी भव में केवलज्ञान हो जाता है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञानी सूक्ष्मतर विशेष अधिक और स्पष्ट रूप से जानता है । क्षयोपशमजन्य कोई भी ज्ञान जब अपने आप में पूर्ण हो जाता है, तब निश्चय ही उसे उस भव में केवलज्ञान हो जाता है, अपूर्णता में भजना है— हो और न भी हो । जाणइ पासइ जब मनःपर्यव ज्ञान का कोई दर्शन नहीं है, तब सूत्रकार ने "पासइ " क्रिया का प्रयोग क्यों किया है ? इसका समाधान यह है- जब ज्ञानी उक्त ज्ञान में उपयोग लगाता है, तब साकार उपयोग ही होता
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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