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नन्दीसूत्रम्
संख्यात ही हो सकते हैं, असंख्यात नहीं। जब कि समनस्क जीव चारों गतियों में असंख्यात हैं, उनके मन की पर्यायों को नहीं जानता । मनः चतुःस्पर्शी होता है। मन का प्रत्यक्ष अवधिज्ञानी भी कर सकता है, किन्तु मन की पर्यायों को मनःपर्यायज्ञानी प्रत्यक्ष रूप से जानता व देखता है। जिस के मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा है, उसमें रहे हुए वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को तथा उस वस्तु की लम्बाई-चौड़ाई, गोलत्रिकोण इत्यादि किसी भी प्रकार के संस्थान को, जानना वह भाव है। अथवा जिस व्यक्ति का मन
औदयिक भाव, वैभाविक भाव और वैकारिक भाव से विविध प्रकार के आकार-प्रकार, विविध रंग-विरंग धारण करता है, वे सब मन की पर्यायें हैं । जो कुछ मन का चिन्तनीय बना हुआ है, तद्गत द्रव्य पर्याय और गुणपर्याय ही भाव कहलाता है, उसे उक्त ज्ञानी स्पष्टतया जानता व देखता है।
मन: पर्याय ज्ञानी किसी बाह्य वस्तु को, क्षेत्र को काल को तथा द्रव्यगत पर्यायों को नहीं जानता, अपितु जब वे किसी के चिन्तन में आ जाते हैं, तब मनोगत भावों को जानता है। जैसे बन्द कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति, बाहर होने वाले विशेष समारोह को तथा उसमें भाग लेने वाले पशु-पक्षी, पुरुष-स्त्री तथा अन्य वस्तुओं को टेलीविजन के द्वारा प्रत्यक्ष करता है, अन्यथा नहीं, वैसे ही जो मन:पर्यव ज्ञानी हैं, वे चक्षु से परोक्ष जो भी जीव और अजीव हैं, उनकाप्रत्यक्ष तब कर सकते हैं, जब कि वे किसी संज्ञी के मन में झलक रहे हों, अन्यथा नहीं। सैकड़ों योजन दूर रहे हुए किमी ग्राम-नगर आदि को मनःपर्यवज्ञानी नहीं देख सकते, यदि वह ग्राम आदि किसी के मन में स्मृति के रूप में विद्यमान हैं, तब उनका साक्षात्कार कर सकते हैं । इसी प्रकार अन्य-अन्य उदाहरण समझने चाहिएं।
यहां एक शंका उत्पन्न होती है कि अवधिज्ञान का विषय भी रूपी है और मनःपर्यव ज्ञान का विषय भी रूपी है, क्योंकि मन पौद्गलिक होने से वह रूपी है फिर अवधि ज्ञानी मन को तथा मन की पर्यायों को क्यों नहीं जान सकता?
इसका समाधान यह है कि अवधिज्ञानी मन को तथा उस की पर्यायों को भी प्रत्यक्ष कर सकता . है, इसमें कोई संदेह नहीं। परन्तु उसमें झलकते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता जैसे टेलीग्राम की टिक-टिक पठित और अपठित सभी प्रत्यक्ष करते हैं और कानों से टिक-टिक भी सुनते हैं, परन्तु उसके पीछे क्या आशय है ? इसे टेलीग्राम पर काम करने वाले ही समझ सकते है।
___अथवा जैसे सैनिक दूर रहे हुए अपने साथियों को दिन में झण्डियों की विशेष प्रक्रिया से और रात को सर्चलाईट की प्रक्रिया से अपने भावों को समझाते और स्वयं भी समझते हैं, किन्त अशिक्षित व्यक्ति भण्डों को और सर्चलाईट को देख तो सकता है तथा उनकी प्रक्रियाओं को भी देख सकता है । परन्तु उनके द्वारा दूसरे के मनोगत भावों को नहीं समझ सकता। इसी प्रकार अवधिज्ञानी मन को तथा मन की पर्यायों को प्रत्यक्ष तो कर सकता है, किन्तु मनोगत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता जब कि मनःपर्यवज्ञानी का वह विशेष विषय है। यदि उसका यह विशेष विषय न होता तो मनःपर्यवज्ञान की अलग गणना करना ही व्यर्थ है। ...
शंका-ज्ञान तो अरूपी है, अमूर्त है जब कि मनःपर्यव ज्ञान का विषय रूपी है, वह मनोगत भावों को कैसे समझ सकता है ? और उन भावों का प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है ? जब कि भाव अरूपी हैंइसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक भाव में जो ज्ञान होता है, वह एकान्त अरूपी नहीं होता, कथं