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मनः पर्यवज्ञान
काल को विपुलमति उससे कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और वितिमिर अर्थात् भ्रमरहित जनता व देखता है ।
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भाव की अपेक्षा - ऋजुमति अनन्त भावों को जानता और देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को जानता व देखता है । उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और अन्धकार रहित जानता व देखता है ।
टीका - इस सूत्र में 'से किं तं मणपज्जव नाणं ?' मनःपर्यवज्ञान का अधिकार प्रारम्भ होते ही प्रश्न किया कि मनः पर्यवज्ञान कितने प्रकार का है ? इस प्रश्न का उत्तर दिया- 'तं च दुत्रिह उपज्जइ, उज्जुमई विलमई य, मनः पर्यवज्ञान के मुख्यतया दो भेद हैं— ऋजुमति और विपुलमति । यह ज्ञान किसी से सीखा या सिखाया नहीं जा सकता, बल्कि विशिष्ट साधना से स्वतः उत्पन्न होता है । यह ज्ञान गुणप्रत्ययिक ही है, अवधिज्ञान की तरह भर्वप्रत्ययिक नहीं । जो अपने विषय का सामान्य रूपेण प्रत्यक्ष करता है, वह ऋजुमति और जो उसी विषय को विशेष रूप से प्रत्यक्ष करता है, उसे विपुलमति मनः पर्यव ज्ञान कहते हैं । इस स्थान में सामान्य का अर्थ दर्शन से नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मनः पर्यवज्ञान सदा-सर्वदा विशेष ग्राही होता है । दोनों में अन्तर केवल इतना ही है । विपुलमति जितने विषय का प्रत्यक्ष करता है, उतना विषय ऋजुमति का नहीं है। उक्त ज्ञान का स्वामी कौन हो सकता है ? इसका समाधान १७ वें सूत्र में कर आए हैं । अब मनःपर्यवज्ञान का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से विषय का वर्णन सूत्रकार ने चार प्रकार से किया है, जैसे कि
द्रव्यतः — गनोवर्गणा के अनन्त प्रदेशी स्कन्धों से निर्मित संज्ञी जीवों के मन को पर्यायों को तथा उनके द्वारा चिन्तनीय द्रव्य या वस्तु को मनः पर्यवज्ञानी स्पष्ट रूप से जानता व देखता है, वे चाहे तिर्यञ्च हों, मनुष्य या देव हों, उनके मन की क्या-क्या पर्यायें हैं ? कौन-कौन, किन्ह- किन्ह वस्तुओं का चिन्तन करता है ? इत्यादि उपयोग पूर्वक वह सब कुछ जानता व देखता है ।
क्षेत्रतः - लोक के ठीक मध्य भाग में आकाश के आठ रुचक प्रदेश हैं । जहाँ से ६ दिशाएं और चार विदिशाएं प्रवृत्त होतीं हैं - पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर, ऊपर और नीचे जिन्हें विमला तथा तमा भी कहते हैं, ये छ: दिशाएं कहलाती हैं | आग्नेय, नैऋत, वायव और ईशान इन्हें विदिशा कोण भी कहते हैं । मानुषोत्तर पर्वत कुण्डलाकार है, उसके अन्तर्गत अढाई द्वीप और समुद्र हैं । उसे समयक्षेत्र भी कहते 1 उसकी लंबाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन की है । इससे बाहर देव और तिर्यञ्च रहते हैं, मनुष्यों का अभाव है ।
समय क्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को मनः पर्यवज्ञानी जानता व देखता है । विमला दिशा में सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र और तारों में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को भी मनः पर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष करते हैं । नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्रामनगरों में रहे हुए संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को उपयोग पूर्वक प्रत्यक्ष करते हैं । यह मनःपर्यावज्ञान का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र है
वृत्तिकार इसका सविस्तर विवेचन निम्न प्रकार से लिखते हैं
"अथ किमिदं क्षुल्लकप्रतर इति ? उच्यते, इह लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनदेशरहित तया