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नदीसूत्रम्
भूमिसु - पन्द्रह कर्मभूमियों में तीसाए कम्मभूमिसु -तीस अकर्मभूमियों में छप्पन्नाए अंतरदीवगेसुछप्पन्न अन्तर द्वीपों में संन्निपंचेंद्रियाणं - संज्ञिपंचेन्द्रिय पज्जत्तयाणं - पर्याप्तों के मणोगए – मनोगत भावे - भावों को जाणइ - जानता पासइ – देखता है, तं चैव - उन्हीं भावों को विलमई - विपुलमति डाइज्जेहिमगुलेहिं – अढाई अंगुल से अन्भहियतरं - अधिकतर विउलतरं - विपुलतर विसुद्धतरं – विशुद्धतर वितिमिरतरागं-- वितिमिरतर खित्तं - क्षेत्र को जागइ – जानता और पासइ – देखता है ।
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कालओ – काल से उज्जुमई - ऋजुमति जहन्नेणं - जघन्य से पलिश्रोव मस्स् - पल्योपम के असंखिज्जइ भागं – असंख्यातवें भाग को प्रतीयमणागयं - अतीत अनागत वा समुच्चयार्थ में कालं - काल को जाणइ – जानता पासइ — देखता है, तं चेत्र - उसी को विउलमई - विपुलनति अब्भहियतरागं कुछ अधिक विउलतरागं विपुलतर विसुद्वतरागं - विशुद्धतर वितिभिरतरागं विमितिरतर काल को जाणइ - जानता पासइ – देखता है ।
भावो णं - भाव से उज्जुमई - ऋजुमति श्रणंते - अनन्त भावे - भावों को जाग्रह – जानता व पासइ - देखता है सब्वभावाणं सब भावों के प्रांत भागं - अनन्तवें भाग को जागइ – जानता पासइदेखता है । तंचेव — उसी को विउलमई - विपुलमति श्रब्भहियतरागं— कुछ अधिक विउलतरागंविपुलतर विसुद्वतरागं विशुद्धतर वितिमिरतरागं- वितिमिरतर भावं - भाव को जागाह – जानता व पासइ — देखता है ।
भावार्थ — और पुनः वह मनः पर्यव ज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है, यथा — ऋजुमति और विपुलमति । वह मनः पर्यवज्ञान दो प्रकार का होता हुआ भी चार प्रकार से है, यथा
१. द्रव्यसे, २. क्षेत्र से, ३. काल से और ४. भाव से । उन चारों में भी
१. द्रव्य से — ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को विशेष तथा सामान्य रूप से जानता व देखता है, विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और तिमिर रहित जानता व देखता है ।
२. क्षेत्र से - ऋजुमति जघन्य अङ्गुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्षुल्लक प्रतर को और ऊंचे ज्योतिष चक्र के उपरितल पर्यन्त, और तिर्यक् तिरछे लोक में मनुष्यक्षेत्र के अन्दर - अढ़ाई द्वीपसमुद्र पर्यन्त - १५ कर्मभूमियों, ३० अकर्मभूमियों और ५६ अन्तर- द्वीपों में वर्तमान संज्ञिपञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है । और उन्हीं भावों को विपुलमति अढाई अंगुल से अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मलतर, तिमिर रहित क्षेत्र को जानता व देखता है ।
३. काल से — ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट भी • पत्योपम के असंख्यातवें भाग - भूत और भविष्यत् काल को जानता और देखता है । उसी