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________________ मनः पर्यवज्ञान .११३ द्वीप पर्यन्त ही जा सकते हैं । इनका पूर्ण विवरण भगवती सूत्र श० २० से जानना चाहिए । एतद् विषयक वर्णन वृत्तिकार ने निम्नलिखित पांच गाथाओं में किया है, जैसे कि “अइसय चरणसमत्था, जंघाविज्जाहि चारणा मणुश्र । अंधाहि जाइ पढमो, नीसं काउं रविकरेऽवि ॥१॥ एगुप्पारण गयो रुयगवरम्मि उ तो पडिनियत्तो । बिइए नंदिस्सर मिह, तन एइ तहणं ॥ २ ॥ पण्डगवणं, बिइउप्पाएग नंदणं एछ । तउप्पारण तो, इह जंघाचारणो एइ ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु बिइएणं । एइ तओ, तहएणं, कयचेहय वन्दणो इहयं ॥४॥ पढमेण पढमेण नन्दणवणे, बिइउप्पारण पण्डगवणम्मि । एह इहं तइएणं, जो विज्जाचारणो होइ ॥ २ ॥” जिन अप्रमत्त संयतों को विशिष्ट लब्धियां प्राप्त हों, उन्हें ऋद्धिमान कहते हैं, इनसे विपरीत जो अप्रमत्त संयत हैं, उन्हें अनृद्धिप्राप्त कहते हैं । अनृद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत जीवन के किसी भी क्षण में संयम से विचलित हो सकते हैं किन्तु ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत का जीवन के किसी भी क्षण में संयम से स्खलित होना असम्भव ही नहीं, नितान्त असम्भव है, अतः ऋद्धिमान का जीवन विश्व में महत्त्वपूर्ण होता है इसी कारण उन्हें मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है । ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्त संयत भी दो भागों में विभाजित हैं, १ विशिष्ट ऋद्धिप्राप्त और २ सामान्य ऋद्धिप्राप्त । इनमें पहली कोटि के मुनिवर को प्रायः विपुलमति मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और ऋजुमति भी, किन्तु दूसरी कोटि के संयत को प्रायः ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान होता है और किसी को विपुलमति भी । विपुलमति मनः पर्यवज्ञान नियमेन अप्रतिपाति होता. है, किन्तु ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान के लिए विकल्प है। इसकी पुष्टि सर्वजीवाभिगम की आठवीं प्रतिपत्ति से होती है । उसमें लिखा है कि मनः पर्यवज्ञान का अन्तर ज० अन्तर्मुहूर्त है और उ० अपार्द्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण । यदि किसी ऋद्धिप्राप्त मुनिवर के जीवन में मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होकर लुप्त होने का प्रसंग आए तो वही ज्ञान पुनः अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न हो सकता है । इससे सिद्ध होता है कि मनः पर्यवज्ञान के उत्पन्न और लुप्त होने का प्रसंग एक ही भव में एक बार भी आ सकता है और अनेकवार भी । यह कंथन ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान के विषय में समझना चाहिए, विपुलमति के विषय में नहीं । जिस प्रकार यहाँ मनः पर्यवज्ञान विषयक प्रश्नोत्तर हैं, ठीक उसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में भी प्रश्नोत्तर लिखे गए हैं । जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए यहां सारा पाठ न देकर सिर्फ भगवान का अन्तिम उत्तर ही दिया जा रहा है, जैसे कि - " गोयमा ! इडिडपत्त-प्पमत्त-संजय सम्मदिठि-पज्जन्तसंखेज्जवासाउय कम्मभुमिय गब्भवक्कंतिय मणुसस्स आहारग सरीरे, णो अणिड्डिपत्त प्पमत्त संजय सम्मदिट्ठि पज्जत्त संखेज्जवासाउय कम्मभूमिय गब्भवक्कंतिय मणुसस्स आहारग सरीरे ।" आहारक शरीर ऋद्धिप्राप्त प्रमत्त संयत को ही हो सकता है, किन्तु अप्रमत्त संयत को आहारक लब्धि नहीं होती, अपितु १. देखिए प्रज्ञापना सूत्र, २१ वाँ पद ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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