________________
११२
नन्दीसूत्रम् में उत्पन्न गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति होती है, ऋद्धिरहित अप्रमादी सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष आयु वाले कर्मभूमि में पैदा हुए गर्भज मनुष्यों को मनःपयर्याज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ सूत्र १७ ॥
टीका-इससे पूर्व सूत्र में यह कथन किया गया है कि अप्रमत्तसंयत को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि ऐसे भी अप्रमत्त संयत हैं, जिन्हें उक्त ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, इसका क्या कारण है ? इसका निराकरण करने के लिए गौतम स्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् ! यदि अप्रमत्तसंयत को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है तो वे भी दो प्रकार के होते हैं १ ऋद्धिप्राप्त और २ अनृद्धिप्राप्त । इनमें से उक्त ज्ञान का प्रादुर्भाव किन्ह में हो सकता है ? इसका उत्तर भगवान ने अन्वय और व्यतिरेक से दिया है, जो ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत हैं, उनको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है, इतर को नहीं।
ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त जो अप्रमत्त मुनिवर अतिशायिनी बुद्धि से सम्पन्न हैं तथा अवधिज्ञान, पूर्वगतज्ञान, आहारकलब्धि, वैक्रियल ब्धि, विपुल तेजोलेश्या, विद्याचरण एवं जंघाचरण आदि लब्धि से संपन्न हैं, उन्हें ऋद्धिप्राप्त कहते हैं-जैसे कि कहा भी है
"अवगाहते च स श्रुतजलधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम् ।
मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्ठादिबुद्धिर्वा ॥" अतिशायिनी बुद्धि तीन प्रकार की होती है-१ कोष्ठकबुद्धि, २ पदानुसारिणी, ३ बीजबुद्धि । जिस . प्रकार कोष्ठक में रखा हुआ धान्य सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार विशिष्ट ज्ञानी के मुखारविन्द से सुना हुआ श्रुतज्ञान जिस बुद्धि में ज्यों का त्यों सुरक्षित रहता है, उसे कोष्ठक बुद्धि कहते हैं। जो एक भी सूत्रपद का निश्चय करके शेष तत्सम्बन्धित नहीं सुने हुए ज्ञान को भी तदनुरूप श्रुत का अवगाहन करती है, उसे पदानुसारिणी बुद्धि कहते हैं। जो एक अर्थपद को धारण करके शेष अश्रुत यथावस्थित प्रभूत अर्थों को ग्रहण करती है, उसे बीज बुद्धि कहते हैं। उक्त तीन बुद्धिएं परमातिशयरूप प्रवचन में कथन की गई हैं। उनसे जो संपन्न हैं, वे मुनि ऋद्धिमान कहलाते हैं। आदि पद से-आमोसही, विप्पोसही, खेलोसही, जल्लोसही, सव्वोसही लब्धियाँ ग्रहण की गयी हैं। जिनके स्पर्श करने मात्र से असाध्यरोग भी नष्ट होजाएं, ऐसी लब्धि सम्पन्न मुनिवर को आमोसही लब्धिप्राप्त कहते हैं। जिनका प्रश्रवण भी सब प्रकार के रोगों को नष्ट करने में समर्थ है, ऐसे संयत को विप्पोसही लब्धिप्राप्त कहते हैं । जिनका श्लेष्म भी महौषधि का काम करता है, ऐसे संयतों को खेलोसही लब्धिप्राप्त कहते हैं। जिनका सर्वाङ्ग शरीर ओषधिरूप हो गया है, उन संयतों को सम्वोसही लब्धिप्राप्त कहते हैं । इस प्रकार के अप्रमत्त संयतों को ऋद्धिप्राप्त कहते हैं. ऐसी विशिष्ट लब्धियां संयम और तप से प्राप्त होती हैं जो कि विश्वशान्ति के लिए सर्वोपरि हैं। कुछ लब्धियाँ औदयिक भाव से होती हैं और कुछ क्षयोपशमभाव से तथा कुछ क्षायिकभाव से भी।
जंघाचारण लब्धिसम्पन्न मुनिवरों को विशेष जिज्ञासा से जब कहीं यथाशीघ्र जाना होता है, तब उस लब्धि का प्रयोग करते हैं । वे बिना किसी वायुयान या राकेट के आकाश में गमन करते हैं, अपनी लब्धि से रुचकवर द्वीप तक ही जा सकते हैं । और विद्याचारण लब्धि वाले मुनिवर अधिक से अधिक नन्दीश्वर