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________________ ०२ नन्दीसूत्रम् टीका-सर्वप्रथम भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-मनःपर्यव ज्ञान मनुष्यों को हो सकता है, मनुष्येतर देव आदि को नहीं। जब प्रश्न विकल्प से किया जा रहा है, तब उत्तर भी विधि और निषेध रूप से दिया जा रहा है, जैसे कि प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि मनःपर्यव ज्ञान यदि मनुष्य को ही उत्पन्न हो सकता है, तो मनुष्य दो प्रकार के होते हैं, जैसे कि समूछिम और गर्भज, इनमें से मनःपर्यव ज्ञान किसको उत्पन्न हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु वीर ने कहा-गौतम ! गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न हो सकता है, समूछिम मनुष्यों को नहीं । समूछिम मनुष्य उन्हें कहते हैं, जो गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र आदि अशुचि से उत्पन्न हों। उनका सविशेष वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद में निम्न प्रकार से किया है, जैसे कि “कहि णं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा समूच्छंति १ गोयमा ! अंतोमणुस्स खेते पणयालीसाए जोयण. सबसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु गम्भवक्कंतियमखुस्साणं चेव उच्चारेस वा, पासवणेसु वा, खेलेसु वा, सिंघाणेसु वा, वैतेसु वा, पित्तेसु वा, सुक्केसु वा, सोणिएसु वा, सोक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा, विगयजीव कलेवरेसु वा, थीपुरिससंजोएसु वा, गामनिद्धमणेसु वा, नगरनिद्धमणेसु वा, सम्वेसु चे असुइहाणेसु एत्थ णं समुच्छिम मणुस्सा समूच्छंति, अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्ताए प्रोगाहणाए, असण्णी, मिच्छादिट्ठी, अण्णाणी, सब्वाहि पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा, अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति ।" इस पाठ का यह भाव है-मनुष्य क्षेत्र ४५ लाख योजन लंबा-चौड़ा है, उसके अन्तर्गत अढाई द्वीपसमुद्रों, १५ कर्म-भूमि, ३० अकर्मभूमि, ५६ अन्तरद्वीप, इस प्रकार १०१ क्षेत्रों में गर्भज-मनुष्यों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक की मैल, वमन, पित्त, रक्त-राध, वीर्य, शोणित, इनमें तथा शुष्क शुक्रपुद्गल आद्रित हुए में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, शव में, नगर तथा गांव की गंदी नालियों में, और सर्व अशुचि स्थानों में समूछिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। उनकी अवगहना अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र की होती है। वे असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, सब प्रकार की पर्याप्ति से अपर्याप्त, अन्तमुहर्त में ही काल कर जाते हैं। अतः चारित्र का सर्वथा अभाव होने से, इनको मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । इसी कारण भगवान् ने कहा-गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, समूर्णिम मनुष्यों को नहीं। मूलम्-जइ गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, किं कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, अकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा ! कम्मभूमिय-गब्भक्कंतिय-मणुस्साणं, नो अकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मनुस्साणं, नो अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं । छाया-यदि गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, किं कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, अकर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, अन्तरद्वीपज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणाम् ? गौतम ! कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, नो अकर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां, नो अन्तरद्वीपज-गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणाम् । पदार्थ-जइ-यदि गम्भवक्कंतिय-मणुस्साणं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को, किं-क्या कम्मभूमिय
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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