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________________ मनःपर्यवज्ञान टीका-अवधिज्ञान के पश्चात् अब सूत्रकार मनःपर्यवज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है ? इसका विवेचन प्रश्न और उत्तर के रूप में करते हैं। इस विषय में जो प्रश्नोतर गौतम और महावीर स्वामी के मध्य में हुए हैं, वही प्रश्नोत्तर शैली देववाचक जी ने विषय को सुस्पष्ट और सुगम बनाने के लिए अपनायी है। मनःपर्यवज्ञान कितने प्रकार का है ? इसका उत्तर तो आगे दिया जायगा । उस ज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है, मनुष्य या देव आदि ? भगवान उत्तर देते हैं-गौतम ! मनुष्य को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है, मनुष्येतर देव आदि को नहीं। ___ अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चतुर्दशपूर्वधर, सर्वाक्षरों के सन्निपाती, सम्भिन्नश्रोत-संपन्न, प्रवचन के प्रणेता, 'जिन नहीं पर जिन सदृश' गणधरों में प्रमुख गौतम स्वामी को यह शंका कैसे उत्पन्न हो सकती है कि मनःपर्यवज्ञान किसको उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि प्रश्न करने के अनेक कारण होते हैं-विवाद खड़ा करने के लिए, किसी ज्ञानी की परीक्षा के लिए, अपना पाण्डित्य सिद्ध करने के लिए, इत्यादि कारण उनके पूछने के नहीं हो सकते थे, क्योंकि गौतम स्वामी निरभिमानी एवं विनीत थे। हां, उनके भाव ये हो सकते हैं कि अपने जाने हुए विषय को स्पष्ट करने के लिए, नया ज्ञान सीखने के लिए, अन्य लोगों की शंका समाधान करने के लिए, दूसरों को ज्ञान कराने के लिए, उपस्थित शिष्यों का संशय दूर करने के लिए तथा जिनके मस्तिष्क में अभी यह सूझ-बूझ ही नहीं हुई, उन्हें भी अनायास ज्ञान हो जाए और साथ ही उनकी अभिरुचि संयम और तप की ओर विशेष आकृष्ट हो, इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किए हों, ऐसा संभव है। इससे यह भी ध्वनित होता है, कि यदि ज्ञानी गुरुदेव प्रत्यक्ष में हों तो कुछ न कुछ सीखते रहना चाहिए। उनके निकटस्थ शिष्य को विनीत बनकर ही ज्ञानवृद्धि के लिए पूछ-ताछ करते रहना चाहिए । प्रश्न करते हुए गौतम स्वामी अनेकान्तवादको भूले नहीं और भगवान ने जो उत्तर दिया, वह भी अनेकान्तवाद की शैली से ही। अतः प्रश्नकार को प्रश्न करते समय और उत्तरदाता को उत्तर देते समय अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर ही संवाद करना चाहिए, इसी में सबका हित निहित है। मूलम्-जइ मणुस्साणं, किं समुच्छिम-मणुस्साणं, गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं? गोयमा ! नो समुच्छिम-मणुस्साणं, गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं उपज्जइ । छाया-यदि मनुष्याणां, कि सम्मूछिम-मनुष्याणां, गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणां-(वा) उत्पद्यते ? गौतम ! नो सम्मूर्छिम-मनुष्याणां, गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्याणामुत्पद्यते । पदार्थ-जह-यदि मणुस्साणं-मनुष्यों को उत्पन्न होता है तो किं—क्या समुच्छिम-समूछिम मणुस्साणं-मनुष्यों को अथवा गम्भवतिय -गर्भव्युत्क्रान्तिक मणुस्साणं-मनुष्यों को ? गोयमा! गौतम ! नो समुच्छिम-मणुस्साणं-समूर्छिम मनुष्यों को नहीं, गब्भवक्कंतिय-गर्भव्युत्क्रान्तिक मणुस्साणं - मनुष्यों को, उपज्जइ-उत्पन्न होता है। भावार्थ-यदि मनुष्यों को उत्पन्न होता है, तो क्या समूर्छिम-(जो गर्भज मनुष्यों के मलादि में पैदा हों) मनुष्यों को अथवा गर्भव्युत्क्रान्तिक-(जो गर्भ से पैदा हों) मनुष्यों को? गौतम ! समूछिम मनुष्यों को नहीं, गर्भव्युत्क्रन्तिक मनुष्यों को उत्पन्न होता है ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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