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नन्दीसूत्रम्
टीका-इस गाथा में अवधिज्ञान के विषय का उपसंहार करते हुए शेष प्रतिपादनीय विषय का उल्लेख किया गया है । नरयिक, देव और तीर्थकर इनको निश्चय ही अवधिज्ञान होता है, इसलिए सूत्रकर्ता ने श्रोहिस्सऽबाहिरा हुंति—'ये अवधिज्ञान के अबाह्य होते हैं' का कथन किया है। "भैरविक-देव तीर्थ करा अवधेरवधिज्ञानस्याबाह्या एव भवन्ति, बाह्यान कदाचनापि भवन्तीति भावः।" दूसरी विशेषता इनमें यह है कि उपर्युक्त तीनों को जो अवधिज्ञान है, वह सर्व दिशाओं और विदिशाओं का विषयक होता है। शेष, मनुष्य और तिथंच देश से प्रत्यक्ष करते हैं। पासंति सपनो खलु इस पद से मोहिस्सऽबाहिरा हंति इस पद की सार्थकता हो जाती है। यह कोई नियम नहीं है कि अबाह्य अवधिज्ञानी सब ओर से ही देखते हैं, केवल उक्त तीन के लिए ही ऐसा नियम है। शेष, मनुष्य और तिर्यच यदि अवधिज्ञान से अबाह हों, तो वे देश से देखते हैं, सर्व से नहीं । देव और नारकी अवधिज्ञान से आजीवन अबाह्य रहते हैं, किन्तु तीर्थकर . छमस्थकाल पर्यन्त ही अवधिज्ञान से अबाह्य होते हैं। जो नियमेन अवधिज्ञान वाले हैं, उन्हें अबाह्य कहते हैं । और जो अनियत अवधिज्ञान संपन्न हैं, उन्हें बाह्य कहते हैं। तीर्थकर का अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक नहीं होता, अपितु परभव से समन्वित आगमन होता है। जिस आत्मा ने तीर्थकर बनना हो, वह यदि २६ देवलोकों और लोकान्तिक देवलोकों से च्यवकर आ रहा हो, तो वह विपुल मात्रा में अवधिज्ञान को लेकर आता है । वह यदि पहले, दूसरे और तीसरे नरक से आ रहा हो, तो अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान उतना ही होता है, जितना कि तत्रस्थ नारकी को, किन्तु पर्याप्त अवस्था में वह अवधिज्ञान युगपत् महान् बन जाता है। तीयंकरों का अवधिज्ञान अप्रतिपाति होता है। इस प्रकार अवधिज्ञान का निरूपण समाप्त हुआ।
मनःपर्यवज्ञान
मूलम्-से किं तं मणपज्जवनाणं ? मणपज्जवनाणे णं भंते ! किं मणुस्साणं उपज्जइ अमणुस्साणं ? गोयमा ! मणुस्साणं, नो अमणुस्साणं ।
छाया-अथ किं तन्मनःपर्यवज्ञानं ? मनःपर्यवज्ञानं भदन्त ! कि मनुष्याणामुत्पद्यते, अमनुष्याणां (वा) ? गौतम ! मनुष्याणां, नो अमनुष्याणाम् ।
पदार्थ-से किं तं--अथ वह मणपज्जवनाणं-मनःपर्यवज्ञान कितने प्रकार का है।? भंते:भगवन् ! मण पज्जवनाणे णं-मनःपर्यवज्ञान णं-वाक्यालंकार में है कि क्या मखुस्साई-मनुष्यों को उपज्जइ-उत्पन्न होता है या श्रमणुस्साणं-अमनुष्यों को ? गोयमा! हे गौतम ? मणुस्सावंमनुष्यों को होता है णो अमणुस्साणं-अमनुष्यों को नहीं।
भावार्थ-वह मनःपर्यायज्ञान कितने प्रकार का है ? हे भगवन् ! वह मनःपर्यायज्ञान क्या मनुष्यों को उत्पन्न होता है अथवा अमनुष्यों-देव, नारकी और तिर्यंचों को ?
भगवान् बोले-गौतम ! वह मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, अमनुष्यों को नहीं।