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बाह्य बाह्य श्रवधि
पदार्थ - एसो - यह श्रोही - अवधिज्ञान भवपच्चइयो - भवप्रत्ययिक य— और गुणपच्चइओ गुणप्रत्ययिक दुविहो-दो प्रकार का वरण-वर्णन किया गया है । य-और तस्स - उसके भी दब्वेद्रव्य, खित्ते – क्षेत्र काले - काल अ - और य- भावरूप से बहू विगप्पा -- बहुत विकल्प हैं ।
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भावार्थ - यह पूर्वोक्त अवधिज्ञान - भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दो प्रकार का वर्णन किया गया है और उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावविषयक बहुत से विकल्प - भेद कथन किए गए हैं ।
टीका - इस संग्रह गाथा में अवधिज्ञान विषयक पूर्वोक्त भेद-प्रभेदों का उल्लेख संक्षेप से किया गया है | अवधिज्ञान के भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक, इस प्रकार दो भेद प्रदर्शित किए गए हैं। गुणप्रत्ययिक के छः भेदों में प्रत्येक के अनेक विकल्पों का निर्देश किया गया है । तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट विषय का ही उल्लेख किया है । मध्यम विषय के असंख्यात भेद बनते हैं । गाथा में आए हुए 'य' शब्द से भाव अर्थात् पर्याय ग्रहण करनी चाहिए। पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, और आठ स्पर्श इनमें उतार-चढ़ाव तथा परिवर्तन को पौद्गलिक पर्याय कहते हैं । अवधिज्ञानी पुद्गल की अनन्तपर्यायों को जानता है, किन्तु सर्वपर्यायों को नहीं । वह सर्व द्रव्यों को जानता है तथा देखता भी है, परन्तु सर्व पर्याय अवधिज्ञानी का विषय नहीं है ।
अबाह्य-बाह्य अवधि
मूलम् - २. नेरइयं देवतित्थकरा य, प्रोहिस्सऽबाहिरा हुंति । पासंति सव्व खलु, सेसा देसेण पाति ॥ ६४ ॥ सेत्तं हिनाणपच्चक्खं ।
छाया - २ नैरयिक- देवतीर्थंकराश्च, अवधेरबाह्या भवन्ति ।
पश्यन्ति सर्वतः खलु शेषा देशेन पश्यन्ति ॥ ६४ ॥ तदेतदवधिज्ञानप्रत्यक्षम् ।
पदार्थ - नेरइय - नारकी देव-देवता य-और तित्थकरा - तीर्थंकर श्रोहिस्स – अवधिज्ञान के बाहिरा - अबाह्य हुंति — होते हैं और ये खलु - निश्चय ही सन्चो - सब ओर पासंति — देखते हैं । सेसा – शेष देसेण – देश से पासंति – देखते हैं । से तं - यही वह श्रोहि नाण- पच्चक्खं – अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है ।
भावार्थ- नारकी, देव और तीर्थंकर अवधिज्ञान के अबाह्य अर्थात् अवधिज्ञान से युक्त होते हैं और सब दिया-विदिशा में देखते हैं, शेष अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च देश से देखते हैं । इस प्रकार यह अवधिज्ञान प्रत्यक्ष का वर्णन सम्पूर्ण हुआ ।