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________________ .१८ नन्दीसूत्रम् उत्कृष्ठ अलोक में कल्पना से यदि लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड किए जाएं तो अवधिज्ञानी, उन्हें भी जानने व देखने की शक्ति रखता है। कालत:-अवधिज्ञानी जघन्य एक आवलिका के असंख्यातवें भागमात्र को देखता है तथा उत्कृष्ट असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमाण अतीत और अनागत काल को जानता व देखता है। भावतः-अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावों-पर्यायों को जानता व देखता है, उत्कृष्ट भी अनन्त पर्यायों को जानता व देखता है, किन्तु इस स्थान पर जघन्यपद से उत्कृष्ट पद अनन्तगुण अधिक जानना चाहिए, क्योंकि अनन्त के भी अनन्त भेद होते हैं। फिर भी वह एक भेद-भाग अनन्त के स्तर पर ही . रहता है। इस विषय में चूर्णिकार भी लिखते हैं-"जहएणपदाओ उक्कोसपदं अणन्तगुणं" किन्तु जो उत्कृष्ष पद में अनन्त पर्यायों का वर्णन किया है, वह भी सर्व भावों के अनन्तवें भागमात्र जानना चाहिए। अतः सूत्रकार ने अन्त में यह पद दिया है-सबभावाणमणंतभागं जाणइ पासह । इस सूत्र के आधार पर चूर्णिकार भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-"उक्कोसपदे वि जे भावा, ते सम्वभावाणं अपंतभागे वति ।" निष्कर्ष यह निकला कि सर्व पर्यायों के अनन्तवें भागमात्र पर्यायों को अवधिज्ञानी जानता व देखता है। ज्ञान विशेष ग्रहणात्मक होता है और दर्शन सामान्य अर्थों का परिच्छेदक होता है। चूर्णिकार भी इसी प्रकार लिखते हैं "जाणइ त्ति नाणं, तं च, जं विसेसग्गहणं तं नाणं-सागारमित्यर्थः, दसेइ, इति दंसणं तं च, जं सामएणग्गहणं तं दंसणं-प्रणागारमित्यर्थः ।" यदि इस स्थान पर यह शंका की जाए कि पहले दर्शन होता है, पीछे ज्ञान, इस क्रम को छोड़कर सूत्रकार ने पहिले ज्ञान, पीछे दर्शन का क्यों ग्रहण किया ? इसके समाधान में कहा जाता है कि सर्वलब्धिएं . ज्ञानोपयोग वाले जीव को होती हैं । अतः अवधिज्ञान भी लब्धि है, इस कारण पहले ज्ञान ग्रहण किया है। . यह अध्ययन सम्यग्ज्ञान का प्रतिपादन करने वाला है, इसीलिए सूत्रकार ने सूत्र के आरम्भ में मंगल के प्रतिपादक पांच प्रकार के ज्ञान का ग्रहण किया है । प्रस्तुत प्रकरण में सम्यग्ज्ञान की प्रधानता है। अनाकारोपयोग तो सम्यग् और मिथ्या दोनों का सांझा है । दर्शनोपयोग को तो प्रमाण की कोटि में भी स्थान नहीं मिला । अतः दर्शन अप्रधान है। इसलिए ज्ञान का प्रथम प्रतिपादन करना युक्तिसंगत ही है। प्रस्तुत देश-प्रत्यक्ष अवधिज्ञान की योग, ध्यान और समाधि के द्वारा ही सुगमता से प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि गुण प्रत्यय भी इस की उत्पत्ति में एक मुख्य कारण है ॥ सूत्र १६ ॥ अवधिज्ञान-विषयक उपसंहार मूलम्-१. अोही भवपच्चइयो, गुणपच्चइयो य वण्णिो एसो (दुविहो) । तस्स य बहू विगप्पा, दव्वे खित्ते में काले य ॥६३॥ छाया-१. अवधिर्भवप्रत्ययको, गुणप्रत्ययिकश्च वर्णित एषः (द्विविधः)। तस्य च बहुविकल्पा, द्रव्ये क्षेत्रे च काले च ॥६३॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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