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अप्रतिपाति अवधिज्ञान
छाया-अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानम् ? अप्रतिपात्यवधिज्ञानं-येनाऽलोकस्यैकमप्याकाशप्रदेशं जानाति पश्यति, तेन परमप्रतिपात्यवधिज्ञानं, तदेतदप्रतिपात्यवधिज्ञानम् ॥ १५॥
पदार्थ-से किं तं अपरिवाह मोहिनाणं-अथ वह अप्रतिपाति-अवधिज्ञान किस प्रकार है ? अपडिवाहमोहिनाणं-प्रतिपाति-अवधिज्ञान जेणं-जिससे अलोगस्स–अलोक के एगमवि-एक भी
मागास-आकाश पएसं-प्रदेश को जाणाइ-विशिष्ट रूप से जानता है, पासह-सामान्य रूप से देखता .है, तेण परं-तदुपरान्त वह अपडिवाइ-अप्रतिपाति मोहिनाणं-अवधिज्ञान कहलाता है। सेतं अपडिवाइ-इस प्रकार यह अप्रतिपाति मोहिनाणं-अवधिज्ञान का विषय है ।
भावार्य-गुरु से शिष्य ने पूछा-देव अप्रतिपाति-न गिरने वाला वह अवधिज्ञान किस प्रकार से है ?
गुरुजी उत्तर में बोले हे भद्र ! अप्रतिपाति-अवधिज्ञान-जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश प्रदेश को विशिष्टरूप से जानता है और सामान्यरूप से देखता है, तत्पश्चात् कैवल्य प्राप्ति पर्यन्त वह अप्रतिपाति-अवधिज्ञान कहा जाता है । इस प्रकार यह अप्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप है ॥ सूत्र १५ ॥
____टीक-इस सूत्र में अप्रतिपाति अवधिज्ञान का सविस्तर विवेचन किया गया है । जिस प्रकार कोई महापराक्रमी व्यक्ति अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके निष्कण्टक राज्य-श्री का उपभोग सुखपूर्वक करता है, ठीक उसी प्रकार अप्रतिपाति अवधिज्ञान के होने पर केवलज्ञानरूप राज्य-श्री का प्राप्त होना अवश्यंभावी है, कारण कि अप्रतिपाति अवधिज्ञान, इतना महान होता है, जो कि छप्रस्थ अवस्था में लुप्त तो क्या, किचिन्मात्र भी उसका ह्रास नहीं होता, वह बारहवें गुरणस्थान के चरमान्तावस्थायी होता है। तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। - सूत्रकार ने अप्रतिपाति अवधिज्ञान का लक्षण बतलाते हुए कहा है-अलोगस्स एगमवि मागासपएसं जाणापासह-जो अलोक के एक आकाश प्रदेश को भी प्रत्यक्ष कर लेता है, वह निश्चय ही अप्रतिपाति है। 'अपि' शब्द से यह ध्वनित होता है कि अलोकाकाश के बहुत प्रदेशों का तो कहना ही क्या ? यद्यपि अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य नहीं है। अवधिज्ञान सिर्फ रूपी द्रव्यों का ही परिच्छेदक है, जब कि अलोक में रूपी द्रव्य का नितान्त अभाव है, तदपि यह उसका मात्र सामर्थ्य ही प्रदर्शित किया है, जैसे कि कहा भी है-"एतच्च सामर्थ्यमात्रमुपवयेते, नस्वलोके किंचिदप्यवधिज्ञानस्य द्रष्टव्य. मस्ति ।" अप्रतिपाति अवधिज्ञान जिसे हो जाता है, वह उसी भव में निश्चय ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जन्मान्तर में नहीं । जब वह ज्ञान इद्धिपाता हुआ परमावधि ज्ञान की सीमा में पहुंच जाता है, तब निश्चय ही अन्तर्मुहूर्त में उसे केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । यह हुआ अप्रतिपाति अवधिज्ञान का वर्णन । इस प्रकार अवधिज्ञान के छः भेदों का भी वर्णन समाप्त हुआ ॥ सूत्र १५ ॥