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________________ ६४ नन्दीसूत्रम् भावार्थ - शिष्य ने प्रश्न किया — गुरुदेव ! उस प्रतिपाति अवधिज्ञान का क्या स्वरूप है ? उत्तर देते हुए गुरुदेव बोले- वत्स ! प्रतिपाति अवधिज्ञान - जघन्यसे अंगुल के असंख्यातवें भाग को अथवा संख्यातवें भाग को, इसी प्रकार बालाग्र या बालाग्र पृथक्त्व, लीख या लीखपृथक्त्व, यूका — जूं या यूकापृथक्त्व, यव - जौं या यवपृथक्त्व, अंगुल व अंगुल - पृथक्त्व, पांव या पांवपृथक्त्व, अथवा वितस्ति– १२ अंगुल परिमाण क्षेत्र या वितस्तिपृथक्त्व, रत्न - हाथ परिमाण या रत्निपृथक्त्व, कुक्षि-दो हस्तपरिमाण या कुक्षिपृथक्त्व, धनुष - चार हाथ परिमाण या धनुषपृथक्त्व, कोस — कोश या कोस पृथवत्व, योजन वा योजनपृथक्त्व, योजनशत या योजनशतपृथक्त्व, योजन - शहस्र - एक हज़ार योजन या योजन सहस्रपृथक्त्व, लाख योजन अथवा लाख योजनपृथक्त्व, योजनकोटि या योजनकोटिपृथक्त्व, योजन कोटिकोटि या योजन कोटिकोटिपृथक्त्व, संख्यात योजन या संख्यातपृथक्त्व योजन, असंख्यात योजन या असंख्यातपृथत्क्व योजन, उत्कृष्ट से सम्पूर्ण लोक को देख कर जो ज्ञान गिर जाता है, उसी को प्रतिपाति अवधिज्ञान कहा गया है ।। सूत्र१४ ॥ टीका - इस सूत्र में प्रतिपाति अवधिज्ञान का स्वरूप दिखाया गया है । प्रतिपाति का अर्थ हैगिरना – पतन होना । पतन तीन प्रकार से होता है - सम्यक्त्व से, चारित्र से और उत्पन्न हुए ज्ञान से । प्रतिपाति अवधिज्ञान जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भागमात्र और उत्कृष्ट लोक नाड़ी को विषय कर पतनशील हो जाता है । शेष मध्यम प्रतिपाति अवधिज्ञान के अनेक भेद हैं, जिन का वर्णन भावार्थ में लिखा जा चुका है । जिस उत्पन्न हुए ज्ञान का अन्तिम परिणाम प्रतिपाति है, वर्तमान में भी उस अवधिज्ञान को प्रतिपति ही कहा जाता है । जिस प्रकार एक दीपक जगमगा रहा है, वायु का एक झोंका आता है और वह दीपक तेल और वर्त्तिका के होते हुए भी एक दम बुझ जाता है। बस यही उदाहरण प्रतिपाति अवधिज्ञान के लिए भी है । प्रतिपाति अवधिज्ञान धीरे-धीरे ह्रास को प्राप्त नहीं होता अपितु युगपत् ही लुप्त हो जाता है । यह ज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न हो सकता है और लुप्त भी । प्रस्तुत सूत्र में कुक्षि शब्द है - जो दो हस्त प्रमाण का वाचक है । तथा सूत्रकर्ता ने गाउअं, शब्द का प्रयोग किया है, इसका संस्कृत में "गव्यूत" बनता है, जिसका अर्थ कोस जैनागमों में दो हज़ार धनुष का कोस माना गया है । और चार कोस का योजन। शेष शब्द सुगम हैं | सूत्र १४ ।। अप्रतिपाति अवधिज्ञान मूलम् - से किं तं प्रपडिवाइ महिनाणं ? अपडिवाइ मोहिनाणं - जेणं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासइ, तेण परं प्रपडिवाइ महिनाणं, से तं पडिवाइ हिनाणं ॥ सूत्र १५ ॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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