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________________ अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र गहना वाला एक महाकाय मत्स्य है, उसने अपने जीवन में सूक्ष्मपनक शरीर के योग्य गति, जाति और आयु आदि कर्मों का बन्ध कर लिया। जब मृत्यु होने में दो समय शेष रह गए तब वह मत्स्य पहिले समय में सकल निज शरीर सम्बन्धित आत्म प्रदेशों को संकुचित करके अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण आत्मप्रदेशों की प्रतर बनाता है, और दूसरे समय आत्प्रदेशों को और भी संकुचित कर सुची परिमाण बना लेता है । मत्स्य भव की आयु परिपूर्ण होने पर वह जीव-आत्मा आत्मप्रदेशों को विशेष प्रयत्न से संकोच कर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र सूक्ष्मपनक रूप में परित्यक्त शरीर के बाहर किसी एक भाग में जा कर उत्पन्न हो जाता है। उस भव के पहिले समय में वह सर्वबन्ध करता है। दूसरे और तीसरे समय में देशबन्ध करने से उस सूक्ष्मपनक जीव की यावन्मात्र अवगहना होती है, वह अवधिज्ञान का जघन्य विषय है । इयन्मात्र पुदगल स्कन्ध का प्रत्यक्ष अवधिज्ञानी कर सकता है। मत्स्य का जो उदाहरण दिया गया है, उसके विषय में निम्नलिखित श्लोक मननीय हैं योजनसहस्रमानो मत्स्यो, · मृत्वा स्वकायदेशे यः। उत्पद्यते हि पनकः, सूचमत्वेनेह स ग्राह्यः ॥१॥ संहृत्य चाद्यसमये, स ह्यायाम करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्याङ्गुल- विभाग-बाहल्यमानं तु ॥२॥ स्वकतनुपृथुत्वमात्रं, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये, संहृत्य करोत्यसौ सुचिम् ॥३॥ संख्यातीताङगुलविभाग- विष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतणुपृथुत्वदीर्घा, तृतीय समये तु संहृत्य ॥४॥ उत्पद्यते च पनकः, स्वदेहदेशे स सूचमपरिमाणः । समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥२॥ तावज्जघन्यमवधेरालंबनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगण-सुसंप्रदायात्समवसेयम् ॥६॥ इन श्लोकों का भाव ऊपर लिखा जा चुका है। सूक्ष्म पनक जीव अन्य जीवों की अपेक्षा से सूक्ष्मतम अवगहना वाला होता है। अतः सूक्ष्म जीवों का शरीर ग्रहण किया गया है। यह जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र तत्त्वदर्शियों ने प्रतिपादन किया है। अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र मूलम्-२. सव्व-बहु-अगणिजीवा, निरंतरं जत्तियं भरिज्जंस । खित्तं सव्वदिसागं, परमोही खित्तं निद्दिट्टो ॥५६॥ छाया--२. सर्ववह्वग्निजीवाः, निरन्तरं (यावद्) भृतवन्तः । क्षेत्रं सर्वदिक्क, परमावधिः क्षेत्रनिर्दिष्टः ।।५६।।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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