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नन्दी सूत्रम्
टीका- अवधिज्ञान का जघन्य विषय कितना हो सकता है ? इसका समाधान सूत्रकार ने स्वयं किया है । सूक्ष्म पनक जीव का शरीर तीन समय आहार लेने पर जितना क्षेत्र अवगाहित करता है, उतना जघन्य अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र है । 'पनक' शब्द जैन परिभाषा में निगोद (नीलन - फूल्लन) के लिए रूढ है। निगोद दो प्रकार की होती है १. सूक्ष्मनिगोद और २ बादर निगोद प्रस्तुत सूत्र में सुहुमस्स पणगजीवरस-सूक्ष्म निगोद ग्रहण की है, बादर नहीं निगोद उसे कहते हैं जो अनन्त जीवों का पिण्ड हो । अर्थात् वहाँ एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं, वह शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है, जिसे पैनी दृष्टि से भी नहीं देख सकते, वे किसी के मारे से नहीं मरते। उस सूक्ष्म-निगोद के एक शरीर में रहते हुए, वे अनन्त जीव अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले होते हैं । कुछ तो अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं और कुछ पर्याप्त होने पर
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असंख्यात समयों की आवलिका होती है। दो सौ छपन्न २५६ आवलिकाओं का एक खुड्डाग भव होता है। यदि निगोद के जीव अपर्याप्त अवस्था में ही निरन्तर काल करते रहें तो एक मुहूर्त में वे ६५५३६ बार जन्म-मरण करते हैं । इस क्रिया से जन्म-मरण करते हुए, वहां उन्हें असंख्यात काल बीत जाता है । कल्पना कीजिए, अनन्त जीवों ने पहले समय में ही सूक्ष्म शरीर के योग्य पुयलों का सर्वबन्ध किया । दूसरे समय में देशबन्घ चालू हुआ, तीसरे समय में वह शरीर जितने क्षेत्र को रोकता है, उतने परिमाण का सूक्ष्म पुद्गल-खण्ड जघन्य अवधिज्ञान का विषय हो सकता है। पहले और दूसरे समय का बना हुआ सूक्ष्मपनक शरीर अवधिज्ञान का विषय नहीं हो सकता, अतिसूक्ष्म होने से चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत स्थूल हो जाता है । अतः सूत्रकार ने तीन समय के बने हुए सूक्ष्म निगोदीय शरीर का उल्लेख किया है । जघन्य अवधिज्ञानी उपयोग पूर्वक उसका प्रत्यक्ष कर सकता है। सूक्ष्म-नाम कर्मोदय से मनुष्य और तिर्यंच दोनों गतियों से जीव निगोद में उत्पन्न हो सकते हैं, अन्य गतियों से नहीं ।
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आत्मा असंख्यात प्रदेशी है । लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने प्रदेश एक आत्मा के हैं । सर्व आत्माओं के प्रवेश परस्पर एक समान है, न्यूनाधिक नहीं प्रत्येक आत्मा के प्रदेश एक दूसरे से भिन्न नहीं, अपितु एक दूसरे से मिले हुए हैं। उन प्रदेशों का संकोच - विस्तार कार्मण योग से होता है। उनका संकोच यहाँ तक हो सकता है, कि वे सब सूक्ष्म पनक शरीर में भी रह सकते हैं और उनका विस्तार भी इतना हो सकता है कि वे लोकाकाश को भी व्याप्त करलें ।
जब आत्मा कार्मण शरीर से रहित होकर सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब उन प्रदेशों में संकोच - विस्तार नहीं होता । जब चरम-शरीरी चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है, तब शरीर की जो अवगहना होती है, उसमें से आत्म-प्रदेशों का एक तिहाई भाग संकुचित हो जाता है । तत्पश्चात् आत्म- प्रदेश अव - स्थित हो जाते हैं, क्योंकि जब कार्मण शरीर ही न रहा, तब कार्मण-योग कहाँ से हो ? आत्मप्रवेशों में संकोच - विस्तार सशरीरी जीवों में होता है। अन्य जन्तुओं की अपेक्षा से सूक्ष्मपनक शरीर सूक्ष्मतम होता है। जिस आत्मा को आहार किए हुए केवल तीन ही समय हुए हैं, ऐसे सूक्ष्मपनक जीव के शरीर को अवधिज्ञानी प्रत्यक्ष कर सकता है । भाषा वर्गणा पुद्गल चतुःस्पर्शी होते हैं और तेजस शरीर वर्गणा के पुद्गल आठ स्पर्शी होते हैं । उनके अपान्तराल में जो भी पुद्गल हैं, वे भी जघन्य अवधिज्ञानी के प्रत्यक्ष होने के योग्य हैं ।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया जाता है—मानो एक हजार योजन की अव