SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र भावार्थ - शिष्य ने प्रश्न किया — गुरुदेव ! वर्द्धमानक अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? गुरुदेव बोले—वत्स ! वर्द्धमानक अवधिज्ञान - अध्यवसायों - विचारों के प्रशस्त होने पर तथा उनके विशुद्ध होने पर और पर्यायों की अपेक्षा चारित्र की वृद्धि होने पर तथा चारित्र के विशुद्धयमान होने अर्थात् आवरणक - मल - कलङ्क से रहित होने पर आत्मा का जो ज्ञान चारों ओर दिशा और विदिशाओं में बढ़ रहा है, वही वर्द्धमानक अवधिज्ञान है । टीका - इस सूत्र में वर्द्धमानक अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है । साधकों के परिणामों में उतार-चढ़ाव होता ही रहता है । जिस अवधिज्ञानी के आत्म-परिणाम विशुद्ध से विशुद्धतर हो रहे हैं, उसका अवधिज्ञान भी प्रतिक्षण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, कारण की विशुद्धि के साथ-साथ कार्य की विशुद्धि का होना भी अनिवार्य है । वर्द्धमानक अवधिज्ञान चतुर्थ, पाँचवें तथा छठे गुणस्थान के स्वामी को भी हो सकता है । क्योंकि परिणामों की तथा चारित्र की विशुद्धि का होना इसमें अनिवार्य है । जैनधर्म बाह्य क्रिया काण्ड को उतना महत्त्व नहीं देता, जितना कि परिणामों की विशुद्धि पर बल देता है । जहाँ भावों की विशुद्धि है, वहाँ बाह्य क्रिया भी उचित रीति से हो सकती है । जहाँ निश्चय शुद्ध है, वहाँ व्यवहार भी शुद्ध होता है, किन्तु निश्चय के बिना व्यवहार भी केवल ढोंग मात्र है । यदि परिणामों में विशुद्धि नहीं है, तो बाह्य क्रिया-काण्ड चाहे कितना भी क्यों न किया जाए, वह ज्ञानियों की दृष्टि में वस्तु है । अध्यवसायों में ज्यों-ज्यों विशुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आवरण का क्षयोपशम भी बढ़ता ही जाता है और तदनुरूप अवधिज्ञान भी चन्द्रकला की तरह प्रतिक्षण विकसित ही होता जाता है । अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र मूलम् — १. जावइा तिसमया - हारगस्स, सुहुमस्स पणगजीवस्स । गाणा जहन्ना, ओही खित्तं जहन्नं तु ॥ ५५ ॥ ८३ छाया - १. यावती त्रिसमयाऽऽहारकस्य, सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य । अवगाहना जघन्या, अवधिक्षेत्रं जघन्यं तु ॥ ५५ ॥ पदार्थ - ति - तीन समयाहारगस्स - समय वाले आहारक सुहुमस्स - सूक्ष्म पंणगजीवस्स - सूक्ष्म कर्मोदयवर्ती वनस्पति विशेष निगोदीय जीवको जावइत्रा - जितनी जहन्ना — जघन्य श्रोगाहणाअवगहना होती है, एतावत् — प्रमाण श्रोही - अवधिज्ञान का जहन्नं तु — जघन्य खित्तं— क्षेत्र है ।'' एवकार अर्थ में है । भावार्थ - तीन समय के आहारक सूक्ष्म - निगोदीय जीव की जितनी जघन्य - कम से कम अवगाहना—शरीर की लम्बाई होती है, उतने परिमाण में जघन्य - कम से कम अवधिजान का क्षेत्र है । 6
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy