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नन्दीसूत्रम्
सूत्रकार ने सूत्र में 'सम्बद्ध' और 'असम्बद्ध' शब्दों का जो प्रयोग किया है। इसका भाव यह है कि जब स्वावगाढ क्षेत्र से निरन्तर जितने पदार्थों को जानता है, वे सम्बद्ध हैं और बीच में अन्तर रखकर आगे रहे हुए जो पदार्थ हैं, वे असम्बद्ध हैं। उन पदार्थों को भी वह अवधिज्ञान के द्वारा जानता है। इस विषय को व्यावहारिक विधि से समझने में सुविधा रहेगी-जैसे एक व्यक्ति प्रकाश स्तम्भ के पास खड़ा है, वह उस प्रकाश से सम भूमि में तो निरन्तर देख सकता है । यदि कुछ दूरी पर निम्न स्थल आजाए और तदनन्तर उन्नत प्रदेश आजाए, तब देखने वाले ने असंम्बद्ध रूपसे देखा, क्योंकि बीच में गर्त, नदी, खाई वा निम्न प्रदेश आगए। उस प्रकाश स्तम्भ का प्रकाश चारों ओर समतल भूमि और ऊंची भूमि पर तो पड़ता है, किन्तु निम्न तथा प्रतिबन्धक स्थानों पर अन्धकार ही होता है, जिससे सम्यक्तया पदार्थों को नहीं जान व देख सकता । यही आशय सम्बद्ध और असम्बद्ध शब्दों का व्यक्त किया गया है। जैसे कि कहा भी है--
___"अवधिहि कोऽपि जायमानः स्वावगाढ़देशादारभ्य निरन्तरं प्रकाशयति, कोऽपि पुनरपान्तरालेऽन्तरं कृत्वा परत: प्रकाशयति, तत उच्यते-सम्बद्धान्यसम्बद्धानि वेति ।"
यह पहिले लिखा जा चुका है कि अवधिज्ञान गुण प्रतिपन्न अनगार व अन्य आत्मा को भी हो सकता है, किन्तु शीलादि गुण होने पर भी स्वाध्याय, ध्यान का होना अनिवार्य है। कारण कि जो आत्मा ध्यानस्थ तथा समाधियुक्त होता है, वह जितना क्षयोपशम करता है, उतना ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है । अतः साधक को शील आदि गुण अवश्य ग्रहण करने चाहिएं।सूत्र ११।।
वर्द्धमान अवधिज्ञान
मूलम्-से किं तं वड्डमाणयं ओहिनाणं ? वड्डमाणयं प्रोहिनाणं, पसत्थेसु अज्झवसायट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाणचरित्तस्स, विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वग्रो समंता अोही वड्डइ ।
छाया-अथ किं तद् वर्द्धमानकमवधिज्ञानं ? वर्द्धमानकमवधिज्ञान-प्रशस्तेप्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य वर्द्धमानचारित्रस्य, विशुद्धमानस्य विशुद्ध मानचारित्रस्य सर्वतः समन्तादवधिर्वर्धते । .. पदार्थ से किं तं वढमाणयं श्रोहिनाणं ?-उस वर्द्धमान अवधिज्ञान का क्या स्वरूप है ? वहुमाणयं-वर्द्धमान श्रोहिनाणं-अवधिज्ञान पसत्थेसु-प्रशस्त अज्झवसायट्ठाणेसु-अध्यवसाय स्थानों में वट्टमाणस्स-वर्तते हुए के वड्डमाणचरित्तस्स वृद्धिपाते हुए चारित्र के विसुज्झमाणस्स-विशुद्धधमान चारित्र के अर्थात् आवरणक-मलकलङ्क से रहित विसुज्झमाणचरित्तस्स-चारित्र के विशुद्धधमान होने पर उस व्यक्ति का सव्वो-सब दिशा और विदिशाओं में समंता-सर्व प्रकार से प्रोही-अवधिज्ञान वडइ-वृद्धि पाता है।