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________________ अनानुगामिक अवधिज्ञान परिघूर्णन २ तदेव ज्योतिःस्थानं पश्यति, अन्यत्र गतान् न जानाति न पश्यति, एवमेवाऽनानुगामिकमवधिज्ञानं यत्रैव समुत्पद्यते तत्रैव संख्येयानि वा असंख्येयानि वा, सम्बद्धानि वासम्बद्धानि वा, योजनानि जानाति पश्यति, अन्यत्र गतान्न पश्यति तदेतदनानुगामिकमवधिज्ञानम् ॥सूत्र ११॥ पदार्थ से किं तं प्रणाणुगामियं श्रोहिनाणं-अथ वह अनानुगामिक अवधिज्ञान क्या है ? प्रणाणुगामियं-अनानुगामिक ओहिनाणं-अवधिज्ञान से जहानामए-जैसे—यथानामक केइ पुरिसे-कोई पुरुष एग-एक महंत-महान्—बड़ा जोइट्ठाणं-ज्योतिःस्थान काउं—करके तथा तस्सेव-उसी जोइट्ठाबस्स -ज्योतिःस्थान के परिपेरंतेहिं २–सर्व दिशाओं के पर्यन्त में परिघोलेमाणे सर्व प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ तमेव-उसी ज्योतिःस्थान से प्रकाशित क्षेत्र को पासइ-देखता है, अन्नस्थगए-अन्यत्रगत न–नहीं जाणइ-जानता-न ही पासइ-देखता, एवामेव-इसी प्रकार प्रणाणुगामियं-अनानुगामिक श्रोहिनाणं-अवधिज्ञान जत्थेव-जहां समुप्पज्जा-समुत्पन्न होता है, तत्थेव-वहां पर ही संखेज्जाणि . वा–संख्यात वा असंखेज्जाणि वा-असंख्यात संबद्धाणि वा--स्वावगाढ़ क्षेत्र से सम्बन्धित अथवा असंब द्वाणि वा-असंबन्धित जोयणाई-योजनों पर्यन्त अवगाहित द्रव्यों को जाणइ-जानता है, पासइ देखता है, अन्नत्यगए-अन्यत्रगत न पासइ-नहीं देखता है से तं-यह अणाणुगामियं-अनानुगामिक __ोहिनाणं-अवधिज्ञान है। भावार्थ-शिष्य ने पूछा-भगवन् ! वह अनानुगामिक अवधिज्ञान किस प्रकार है ? गुरुजी उत्तर में बोले-भद्र ! अनानुगामिक अवधिज्ञान, जैसे-यथा नामवाला कोई व्यक्ति एक बहुत बड़ा अग्नि का स्थान बनाकर उसमें अग्नि को दीप्त करके, उस आग के चारों ओर सब दिशाओं में सर्व प्रकार से घूमता हुआ, उस ज्योति से प्रकाशित क्षेत्र को ही देखता है, अन्यत्र न जानता है, न देखता है। इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्थित संख्यात वा असंख्यात योजन स्वावगाढ़ क्षेत्र से सम्बन्धित अथवा असम्बन्धित योजनों पर्यंत अवगाहित द्रव्यों को जानता व देखता है, अन्यत्रगत नहीं देखता है । इसी को अनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं ॥ सूत्र ११ ॥ टीका-प्रस्तुत सूत्रमें अनानुगामिक अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है । जैसे कोई व्यक्ति एक बहुत बड़े ज्योतिःस्थान के आस-पास बैठकर या उसके चारों ओर घूमता हुआ, जहां तक ज्योति का प्रकाश पड़ता है. वहां तक वह उसं प्रकाश से प्रकाशित पदार्थों को भली-भाँति जानता है और देखता है। यदि वह पुरुष ज्योतिःस्थान से उठ कर किसी अन्य स्थान पर चला जाए, तो वह ज्योति उसके साथ नहीं जाती। इसी कारण वह अन्यत्र. गया हुआ पुरुष अन्धकार में पड़े पदार्थों को नहीं देख सकता। ठीक इसी प्रकार जिस आत्मा को अनानुगामिक अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह जिस क्षेत्रमें उत्पन्न हुआ है, या जिस स्थान विशेष में उत्पन्न हुआ है, या जिस भव में उत्पन्न हुआ है, वह उस अनानुगामिक अवधिज्ञान के द्वारा, उस क्षेत्र में रहते हुए अथवा उस स्थान में, या उस भव में रहते हुए संख्यात या असंख्यात योजनों तक रूपी पदार्थों को जान व देख सकता है, अन्यत्र चले जाने पर जान और देख नहीं सकता।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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