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नन्दीसूत्रम्
उपपात के अनन्तर वह अवधिज्ञान उतना ही हो जाता है, जितना होना चाहिए अर्थात् जब जन्म स्थान में पहुँचे हुए पहिला ही समय होता है, तब उन्हें अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को विषय करने वा अवधि होता है । कल्पना कीजिए किसी मनुष्य या तिर्यञ्च को जघन्य अवधिज्ञान पैदा हुआ, तत्पश्चात् वह मृत्यु को प्रप्त कर वैमानिक देव बना, तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वही ज्ञान होता है जो वह मृत्यु के समय साथ ले गया था । पर्याप्त होने पर भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान ही होता है । अतः इससे सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं आता । इस विषय को स्पष्ट करने के लिए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी प्रतिपादन करते हैं, यथा
Το
“वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं, जहण्णओ होइ (ओही ) । उववाए परभत्रियो, तब्भवजो होइ तो
पच्छा ॥"
इसी प्रकार सनत्कुमार आदि देवों के विषय में जान लेना चाहिए। इसके अनन्तर अधोभाग में देखने की जो विशेषता है, उसका विवर्ण निम्न प्रकार है
सनत्कुमार और महेन्द्र देवलोक के देव नीचे शर्करप्रभा पृथ्वी के चरमान्त को, ब्रह्म और लान्तक के देव वालुकाप्रभा पृथ्वी के चरमान्त को, महाशुक्र और सहस्रार के देव चौथी पृथ्वी के चरमान्त को, आणत प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देव पाँचवीं के नीचे चरमान्त को, तेरहवें देवलोक से लेकर अठारहवें देवलोक के देव छठी पृथ्वी के चरमान्त को और उपरितन ग्रैवेयक के देव सातवीं पृथ्वी को, तथा अनुत्तरोपपातिक देव सम्पूर्ण लोक को अवधिज्ञान के द्वारा जानते व देखते हैं ।
अवधिज्ञान का संस्थान भी अनेक प्रकार का है । भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का अवधिज्ञान ऊंची दिशा की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है । ज्योतिषी और नारकियों का अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है । मनुष्यों का अवधिज्ञान भी विचित्र प्रकार होता है । इस प्रकार यह आनुगामिक अवधिज्ञान और उसके विषय का विवेचन है ।। सूत्र१० ।।
अनानुगामिक अवधिज्ञान
मूलम् - से किं तं प्रणाणुगामियं ओहिनाणं ? अणाणुगामियं श्रहिनाणं, - से जहानामए केइ पुरिसे एगं महंत जोइट्ठाणं काउं तस्सेव जोइट्ठाणस्स परिपेरतेहि परिपेरंतेहिं, परिघोलेमाणे परिघोलेमाणे, तमेव जोइट्ठाणं पासइ, अन्नत्थगए न जाणइ न पासइ, एवामेव प्रणाणुगामियं मोहिनाणं जत्थेव समुप्पज्जइ, तत्थेव संखिज्जाणि वा प्रसंखिज्जाणि वा, संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ, अन्नत्थगए ण पासइ, से त्तं प्रणाणुगामियं श्रहिनाणं ।। सूत्र ११ ॥
छाया - अथ किं तदनानुगामिकमवधिज्ञानम् ? अनानुगामिकमवधिज्ञानं स यथानामकः कश्चित्पुरुष एकं महत् — ज्योतिः स्थानं कृत्वा तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य परिपर्यन्तेषु २,