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________________ श्रानुगामिक अवधिज्ञान गुरु ने उत्तर दिया-अन्तगत अवधि तीन प्रकार का है, जैसे-आगे से अन्तगत १, पीछे से अन्तगत २, और दोनों पार्यों से अन्तगत ३ । शिष्य ने फिर प्रश्न किया-गुरुवर ! वह आगे से अन्तगत अवधि किस प्रकार का है ? उत्तर देते हुए गुरुदेव बोले-जैसे कोई व्यक्ति उल्का अर्थात् दीपिका अथवा घास-फूस की पूलिका जो आगे से जल रही हो अथवा जलते हुए काष्ठ, मणि, प्रदीप, अथवा किसी भाजन विशेष में जलती हई अग्नि को हाथ या दण्ड आदि से आगे करके अनुक्रम से यथागति चलता है और उक्त प्रकाशित वस्तुओं के द्वारा मार्ग में रहे हुए पदार्थों को देखता जाता है। इसी प्रकार पुरतो अन्तगत अवधिज्ञान भी आगे के प्रदेश में प्रकाश करता हुआ साथ-साथ चलता है । उसे पुरतः अन्तगत अवधि कहते हैं । मार्ग से अन्तगत अवधि किस प्रकार होता है ? शिष्य ने पूछा । गुरु बोले-जैसे यथानामक कोई व्यक्ति उल्का-जलती हुई तृणपूलिका, अग्रभाग गे जलते हुए काठ को, मणि को, प्रदीप अथवा ज्योति को हाथ या किसी अन्य दण्ड द्वारा पीछे करके, उक्त पदार्थों से प्रकाश करके देखता हुआ चलता है । वैसे ही जो आत्मा पीछे के प्रदेश को अवधिज्ञान से प्रकाशित करता है, उसका वह पृष्ठगामी अवधि मार्ग से अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है। वह पार्श्व से अन्तगत अवधि क्या है ? इस पर गुरुदेव ने उत्तर दिया-पार्वतो अन्तगत अवधि, जिस प्रकार कोई पुरुष-दीपिका, चटुली, अग्रभाग से जलते हुए काठ को, मणि अथवा प्रदीप या अग्नि को दोनों पाश्र्वो- बाजुओं से परिकर्षण करता हुआ दोनों ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता हुआ चलता है। ऐसे ही जिस आत्मा का अवधिज्ञान पार्श्व के पदार्थों का ज्ञान कराता हुआ साथ-साथ चलता है, उसे पार्वतो अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है । इस तरह यह अन्तगत अवधिज्ञान का वर्णन है। शिष्यने फिर पूछा-वह मध्यगत अवधिज्ञान किस प्रकार है ? गुरुजी ने उत्तर दिया-वत्स ! मध्यगत अवधि, जैसे यथानामक कोई पुरुष-उल्का अथवा तृणों की पूलिका, अथवा अग्र भागों में जलते हुए काठ को, मणि को या प्रदीप को या शरावादि में रखी हुई अग्नि को मस्तक पर रख लेकर चलता है। जैसे वह पुरुष सर्व दिशाओं में रहे हुए पदार्थों को उपरोक्त प्रकाश के द्वारा देखता हुआ चलता है, ठीक इसी प्रकार चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हए जो ज्ञान ज्ञाता के साथ-साथ चलता है। उस ज्ञान को मध्यगत अवधिज्ञान कहा जाता है। टीका-इस सूत्र में आनुगामिक अवधिज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया गया है । जिस स्थान या जिस भव में किसी आत्मा को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, यदि वह स्थानान्तर या दूसरे भव
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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