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________________ नन्दीसूत्रम् में चला जाए और उत्पन्न अवधिज्ञान भी साथ ही रहे, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं । इसके मुख्यतया दो भेद हैं—अन्तगत और मध्यगत । यहाँ 'अन्त' शब्द पर्यन्त का बाची है । न कि विनाश का । जैसे 'वनान्ते' अर्थात् वन के किसी छोर में । इसी प्रकार जो आत्मप्रदेशों के किसी एक छोर में विशिष्ट क्षयोपशम होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं । जैसे-"अन्तगतम् आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम् ।' जिस प्रकार गवाक्ष, जालादि द्वार से निकली हुई प्रदीप की प्रभा बाहिर प्रकाश करती है, उसी प्रकार अवधिज्ञान की समुज्ज्वल किरणे स्पर्द्धकरूप छिद्रों से बाह्य जगत् को प्रकाशित करती हैं। एक जीव के संख्यात तथा असंख्यात स्पर्द्धक होते हैं और वे विचित्र रूप होते हैं। आत्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में जो अवधि उत्पन्न होता है, उसके अनेक भेद हैं। कोई आगे की दिशा को प्रकाशित करता है, कोई पीछे, कोई दाई और बाई दिशा को प्रकाशित करनेवाला होता है। कोई इनसे विलक्षण मध्यगत अवधिज्ञान होता है, जैसे—“यदा अन्तर्वतिध्वात्मप्रदेशेववधिज्ञानमुपजायते तदा प्रात्मनोऽन्ते-पर्यन्ते स्थितमिति कृत्वा अन्तगतमित्युच्यते, तैरेव पर्यन्तवत्तिभिरामप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानाम्न शेषैरिति ।" अथवा जो औदारिक शरीर के किसी एक ओर विशेष क्षयोपशम होने से अवधि उत्पन्न हो, उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है। अथवा सर्वात्मप्रदेशों के क्षयोपशम भाव से औदारिक शरीर की एक दिशा में उपलब्ध होने से भी अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। यहाँ यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब सर्व आत्मप्रदेशों पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो गया, तब वह ज्ञान सर्व प्रकार से क्यों प्रत्यक्ष नहीं करता? इसका समाधान यह है कि 'विचित्राः • क्षयोपशमाः' क्षयोपशम भाव की यह विचित्रता है जो कि औदारिक शरीर की अपेक्षा विवक्षित एक हो । दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष करता है । इस विषय में चूणिकार भी लिखते हैं-"पोरालिए सरीरन्ते ठियं गयं ति, एगळं तं चायपएस फडुगा बहि एगदिसोबलम्भाश्रो य अन्तगयमोहिनाणं भएणइ, अहवा सम्बायप्पएसेसु विसुद्धसुऽवि ओरालियसरीरंगतेण एगदिसि पासणागयंति, अंतगयं भण्णइ।" अन्तगत का तीसरा अर्थ है-एक दिशा में होनेवाले उस अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के चरमान्त को जानना । उस क्षेत्र के अन्त में वर्तने से वह अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है, जैसे कहा भी है-"ततो एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते व्यवस्थितमन्तगतम् ।" 'च' शब्द देश कालादि की अपेक्षा से स्वगत अनेक भेदों का सूचक है । इसी प्रकार मध्यगत अवधिज्ञान की भी तीन प्रकार से व्याख्या करनी चाहिए । आत्मप्रदेशों के मध्यवर्ती प्रदेशों में विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान को मध्यगत कहते हैं । यह अवधिज्ञान सब दिशाओं में रहे हुए रूपी पदार्थों को जानने की शक्ति रखता है । अत: प्रदेशों के मध्यवर्ती होने से इसे मध्यगत कहा जाता है । अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम होने पर औदारिक शरीर के मध्य भाग से जिस ज्ञान की उपलब्धि हो, वह मध्यगत अवधिज्ञान कहा जाता है। चूर्णिकार भी इस बारे में लिखते हैं-"पोरालिएसरीरमझे फडुगविसुद्धीओ सब्वायप्पएसविसद्धीश्रो वा सव्व दिसोवलंभत्तणो मझगउत्ति भण्णह।" जिस अवधिज्ञान से सर्व दिशाएं प्रकाशित हो रही हैं, उन दिशाओं के मध्यभाग में रहनेवाला अवधिज्ञानी या अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है, कारण कि वह प्रकाशित क्षेत्र के मध्यवर्ती है, यह विशेषता अन्तगत में नहीं है। इस विषय पर चूर्णिकार लिखते हैं-अहवा उवलद्धिखेत्तस्स अवहिपुरिसो मझगउत्ति, अतो वा मझगड
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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