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________________ अवधिज्ञान के छः भेद - - अवधिज्ञान के छः भेद मूलम्--अहवा गुणपडिवन्नस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पज्जइ, तं समासो छव्विहं पण्णत्तं, तंजहा १. आणुगामियं, २. अणाणुगामियं, ३. वड्ढमाणयं, ४. हीयमाणयं, ५. पडिवाइयं, ६. अप्पडिवाइयं ॥ सूत्र ६ ॥ छाया-अथवा गुणप्रतिपन्नस्याऽनगारस्याऽवधिज्ञानं समुत्पद्यते, तत्समासतः षड्विषं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- । . १. आनुगामिकम्, २. अनानुगामिक, ३. वर्द्धमानकं, ___ ४. हीय-मानकं, ५. प्रतिपातिकम्, ६. अप्रतिपातिकम् ॥ सूत्र ६ ॥ पदार्थ-अहवा-अथवा गुणपडिवन्नस्स-गुणप्रतिपन्न अणगारस्स-अनगार को ओहिनाणंअवधिज्ञान समुप्पज्जह-समुत्पन्न होता है, तंजहा-जैसे प्राणुगामियं—आनुगामिक प्रणाणुगामियंअनानुगामिक, वड्डमाणयं-वर्द्धमान, हीयमाणयं-हीयमान, पडिवाइयं-प्रतिपातिक, अपडिवाइयंअप्रतिपातिक। भावार्थ-अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र सम्पन्न मुनि को जो अवधिज्ञान समुत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक कहलाता है । वह संक्षेप से छः प्रकार का है, जैसे- १. आनुगामिक-साथ चलने वाला, २. अनानुगामिक-साथ न चलने वाला। ३. वर्द्धमान-बढ़नेवाला, ४. हीयमान-क्षीण होने वाला । ५. प्रतिपातिक-गिरने वाला, ६. अप्रतिपातिक-न गिरने वाला। टीका-प्रस्तुत सूत्र में अवधिज्ञान के छह भेद प्रतिपादित किए गए हैं। मूलोत्तर गुणों से युक्त अनगार को यह अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, कारण कि अवधिज्ञान का पात्र गुणयुक्त होना चाहिए । क्षयोपशमभाव गुणों से ही हो सकता है । जब सर्वघाति रस-स्पर्द्धक प्रदेश देशघाति रस-स्पर्द्धक रूप में परिणत होते हैं, तब क्षयोपशमभाव से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। संक्षेप से अवधिज्ञान के वे छः भेद इस प्रकार हैं १. प्रानुगामिक-जैसे लोचन चलते हुए पुरुष के साथ ही रहते हैं तथा सूर्य के साथ आतप और चन्द्रमा के साथ चान्दनी साथ ही रहते हैं। वैसे ही आनुगामिक अवधिज्ञान भी इस भव में तथा परभव में साथ ही रहता है। २. अनानुगामिक-जो साथ न चले, किन्तु जिस जगह पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को देख सकता है, और चलने के समय साथ नहीं जाता, जैसे शृंखलाबद्ध प्रदीप से वहीं काम ले सकते हैं, किन्तु वह किसी के साथ नहीं जा सकता। इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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