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नन्दीसूत्रम्
अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति के जीव होते हैं । अवधिज्ञान मुख्यतया दो प्रकार का होता है, भव - प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । जो अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट होता है, जिसके लिए संयम, तप आदि 'अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं रहती, उसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं। जो संयम, नियम और व्रत आदि अनुष्ठान के बल से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उसे क्षायोपशमिक कहते हैं । इस दृष्टि से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियों को तथा क्षायोपशमिक मनुष्य और तिर्यञ्चों को होता है अर्थात् मूल तथा उत्तर गुणों की विशिष्ट साधना से जो अवधिज्ञान हो, उसे गुरण-प्रत्यय भी कह सकते हैं ।
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इस स्थान पर यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि अवधिज्ञान क्षयोपशम भाव में होता है, किन्तु देव और नारक औदयिक भाव में कथन किए गए हैं, तो फिर इस अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कैसे कहा है ? इस का समाधान यह है - वास्तव में अवधिज्ञान क्षयोपशम भाव में ही होता है । सिर्फ वह क्षयोपशम देव और नारक भव में अवश्यंभावी होने से उसे भवप्रत्यय कहा है, जैसे कि पक्षियों की गगन उड़ान, जन्म सिद्ध गति है, किन्तु मनुष्य वायुयान से तथा जंघाचरण या विद्याचरण लब्धि से गगन में गति कर सकता है । अत: इस ज्ञान को भवप्रत्यय कहते हैं । इसी प्रकार चूर्णिकार भी लिखते हैं
"नणु श्रोही खाओवसमिए भावे, नारगाइभवो से उदय भावे तो कहं भवपच्चइओ भण्णइ त्ति ? उच्यते, सोऽवि खाओवसमिश्र चेव, किन्तु सो खोक्समो नारगदेवभवेसु अवस्सं भवइ, को दिट्ठतो ? पक्खीणं आगास गमणं व, तत्र भवपच्चइओ भन्नइ ।” तथा वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं-
“ तथा द्वयोः क्षायोपशमिकं, तद्यथा - मनुष्याणां च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां च श्रत्रापि च शब्दौ प्रत्येकं स्वागतानेकभेदसूचको, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां चावधिज्ञानं नावश्यंभावि, ततः समानेऽपि क्षायोपशमिक भवप्रत्ययादिदं भिद्यते, परमार्थतः पुनः सकलमध्यवधिज्ञानं क्षायोपशमिकम् ।”
इस का आशय उपर्युक्त है । हाँ देव नारकों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान अवश्यमेव होता है । परमार्थ से सभी प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में होते हैं ।
सूत्र में 'च' शब्द पुनः पुनः आया है, उसका अर्थ है - यह स्वगत देव, नारकादि आश्रित दोनों भेदों का सूचक है । प्रत्यय शब्द शपथ, ज्ञान, हेतु, विश्वास और निश्चय अर्थ में प्रयुक्त होता है । जैसेकि " प्रत्यय, शपथे, ज्ञाने, हेतु, विश्वास-निश्चये ।" सूत्र में जो को हेऊ खाश्रो समिश्रं ? यह पद दिया है। इस प्रश्न से ही यह निश्चित हो जाता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है । अतः इसके उत्तर में सूत्रकार ने स्वयं ही वर्णन किया है । जैसे खाग्रोवसमियं तयावरणिज्जां कम्माणं उदिणाणं खए, अणुदिण्णा - उसमे श्रोहि नाणे समुज्जइ -- श्रत्र निर्वचनमभिधातुकाम ग्रह - क्षायोपशमिकं येन कारणेन तदावर - णीयानाम् अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीर्णानां क्षयेण, अनुदीर्णानाम् -- उदद्यावलिकामप्राप्तानामुपशमेन - विपाकोदयं विष्कम्भण लक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन कारणेन क्षायोपशमिकमित्युच्यते । "
अर्थात् अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय व उपशम होने से अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है। केवल ज्ञान के अतिरिक्त चार ज्ञान क्षयोपशम भाव में होते हैं ।। सूत्र ५- ६-७-८ ।।