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___ नन्दीसूत्रम्
भी जहां पैदा होता है, वहां पर ही रहता है अन्यत्र नहीं जाता। निम्नलिखित गाथा में उक्त विषय को स्पष्ट किया गया है
"अणुगामित्रोऽणुगच्छइ, गच्छन्तं लोयणं जहा पुरिसं ।
इयरो उ नाणुगच्छइ ठियप्पईवो व गच्छन्तं ॥" ३. वर्धमानक–अग्नि में जैसे २ विशिष्ट इन्धन डालते जाएँ, वैसे २ वह बढ़ती ही जाती है और उसका प्रकाश भी बढ़ता जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे २ अध्यवसाओं की विशुद्धि होती जाती है, वैसे २ अवधिज्ञान भी बढ़ता ही जाता है । इस लिए इसे वर्धमानक अवधिज्ञान कहते हैं। '
४. हीयमानक-जैसे नया इन्धन न मिलने से अग्नि क्षण २ बुझती जाती है, वैसे ही उत्पत्ति के समय परिणामों की विशुद्धि होने से बहुत बड़ी मात्रा में अवधिज्ञान पैदा हुआ, किन्तु ज्यों २ संक्लिष्ट परिणाम बढ़ते जाते हैं, त्यों २ अवधिज्ञान भी हीन, हीनतर, हीनतम होता जाता है।
१. प्रतिपातिक—जिस प्रकार तेल के क्षय होने से दीपक प्रकाश देकर युगपत् बुझ जाता है, वैसे ही प्रतिपाति अवधिज्ञान भी बुझते हुए प्रदीपवत् युगपत् चला जाता है, जैसे कि कहा भी है
"हीयमानप्रतिपातिनोः कः प्रतिविशेषः ? इति चेद्-उच्यते, हीयमानकं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हासमुपगच्छदभिधीयते, यत्पुनः प्रदीप इव निर्मूलमेककालमपगच्छति तत्प्रतिपातिः।" .
१. अप्रतिपातिक–जो अवधिज्ञान केवल ज्ञान होने से पहले नहीं जाता तथा जिसका स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाति अवधिज्ञान कहते हैं ।
यहां शंका उत्पन्न होती है कि आनुगामिक और अनानुगामिक इन दो भेदों में ही शेष भेद अन्तभूत हो सकते हैं, तो फिर इन को पृथक्-पृथक् क्यों ग्रहण किया है ? समाधान-यद्यपि उपर्युक्त दोनों भेदों में शेष चार भेद भी अन्तर्भूत हो सकते हैं, तदपि वर्धमानक और हीयमानक आदि विशेष भेद जानने के लिए इनका पृथक् न्यास किया गया है । क्योंकि ज्ञान के विशिष्ट भेदों को जानने के लिए ही ज्ञानी महापुरुष शास्त्रारंभ का प्रयास करते हैं । अतः जो भेद-प्रभेद दिए जाते हैं, उनमें मुख्योद्देश्य वस्तु स्वरूप को समझाने का ही होता है, न कि व्यर्थ ही ग्रंय का कलेवर बढ़ाने का ॥ सूत्र ६ ॥
आनुगामिक अवधिज्ञान
मूलम्-से किं तं प्राणुगामियं ओहिनाणं ? पाणुगामियं प्रोहिनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा–अंतगयं च मज्झगयं च ।
से किं तं अंतगयं ? अंतगयं तिविहं पण्णत्तं, तंजहा१. पुरमो अंतगयं २. मग्गो , अंतगयं ३. पासपो अंतगयं ।
से किं तं पुरो अंतगयं ? पुरो अंतगयं-से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं