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सांव्यावहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष
"यदिन्द्रियाश्रितमपरव्यवधानरहितं ज्ञानमुदयते, तल्लोके प्रत्यक्षमिति व्यवहृतम्, अपरधूमादिलिङ्गनिरपेक्षतया साक्षादिन्द्रियमधिकृत्य प्रवर्तनात् " इस से भी उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है | सूत्र ३ ॥
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के भेद
मूलम् - से किं तं इंदियपच्चक्खं ? इंदियपच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा१. सोइंदियपच्चक्खं, २. चक्खिं दियपच्चक्खं, ३. घाणिदियपच्चक्खं, ४. जिब्भिंदियपच्चक्खं, ५ फासिंदियपच्चक्खं से त्तं इंदियपच्चक्खं ।। सूत्र ४ ।।
छाया - अथ किं तदिन्द्रियप्रत्यक्षम् ? इन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा१. श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं, २. चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्षं, ३. घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्षं, ४. जिह्न ेन्द्रियप्रत्यक्षं, ५. स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षं, तदेतद् इन्द्रियप्रत्यक्षम् ॥ सूत्र ४ ॥
भावार्थ - शिष्य ने प्रश्न किया - भगवन् ! वह इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान कितने प्रकार का है ? आचार्य उत्तर में बोले - हे भद्र ! इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच प्रकार का है, यथा
१. श्रोत्रेन्द्रिय-कान से होनेवाला ज्ञान - श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष,
२. चक्षु - आंख से होने वाला ज्ञान- — चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष, ३. घ्राण - नासिका से होने वाला ज्ञान - घ्राणेन्द्रियप्रत्यक्ष, ४. जिह्वा - रसना से होने वाला ज्ञान -1 - जिह्वन्द्रियप्रत्यक्ष, ५. स्पर्शन - त्वचा से होने वाला ज्ञान - स्पर्शनेद्रियप्रत्यक्ष
यह हुआ इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान का वर्णन
।। सूत्र ४ ॥
टीका - इस सूत्र में इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का वर्णन किया गया है । शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है । शब्द दो प्रकार का होता है, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक । दोनों से ही ज्ञान उत्पन्न होता है । इसी प्रकार रूप चक्षु का विषय है, गन्ध घ्राणेन्द्रिय का रस रसनेन्द्रिय का और स्पर्श स्पर्शनेन्द्रियका विषय है ।
इस विषय में शंका उत्पन्न होती है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इस क्रम को छोड़कर श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय इत्यादि पाँच इन्द्रियों का निर्देश क्यों किया ? इस शंका के उत्तर में कहा जाता है कि एक कारण तो पूर्वानुपूर्वी और पश्चादनुपूर्वी दिखलाने के लिये उत्क्रम की पद्धति सूत्रकार ने अपनाई है । दूसरा कारण यह है कि जिस जीव में क्षयोपशम और पुण्य अधिक होता है, वह पंचेन्द्रिय बनता है, उससे न्यून हो तो चतुरिन्द्रिय बनता है, जब पुण्य और क्षयोपशम सर्वथा न्यून होता है, तब एकेन्द्रिय बनता है । जब पुण्य और क्षयोपशम को मुख्यता दी जाती है, तब उत्क्रम से इन्द्रियों की गणना प्रारंभ होती है । जब जाति की अपेक्षा से गणना की जाती है, तब पहले स्पर्शन, रसन इस क्रम को सूत्रकारों ने अपनाया