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________________ नन्दीसूत्रम् को जानने की शक्ति रखता है अथवा जो ज्ञान उदय होने पर कभी भी अस्त न हो, उसे केवल ज्ञान कहते हैं। ६. जो ज्ञान निरावरण, नित्य और शाश्वत् हो, जिसका अन्त न होने वाला हो, वही केवलज्ञान है। ७. क्षायोपशमिक ज्ञान राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह के अंश से खाली नहीं है। किन्तु इनसे सर्वथा रहित ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। पांच प्रकार के ज्ञान में पहले दो ज्ञान परोक्ष हैं, दोन म तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। मति शब्द ज्ञान और अज्ञान दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु माभिनिबोनिक शब्द ज्ञान के लिए ही प्रयुक्त होता है, अज्ञान के लिए नहीं। इसी कारण सूत्रकार ने आभिनिबोधिक शब्द प्रयुक्त किया है। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-१. अर्थ-श्रुत और २. सूत्र-श्रुत । अहंन्तदेव केवलज्ञान के द्वारा जिन पदार्थों को जानकर प्रवचन करते हैं, उसे अर्थ-श्रुत कहते हैं। उसी प्रवचन को जब गणधर देव सूत्ररूप में गुम्फित करते हैं, तब उसे सूत्रश्रुत कहते हैं, क्योंकि सूत्र की प्रवृत्ति शासनहित के लिए ही होती है। जैसे कहा भी है-- "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तो सुत्तं पवत्तइ ॥" तीर्थकर भगवान अर्थ प्रतिपादन करते हैं और गणधर शासनहित, मानवहित तथा प्राणीहित को दृष्टिगोचर रखते हुए उस अर्थ को सूत्ररूप में गून्थते हैं। सूत्रागम में जो भाव या अर्थ हैं, वे गणवरों के नहीं, तीर्थकर के हैं। 'द्वादशाङ्ग गणिपिटक' शब्द रूप में गणधरकृत है और अर्थ रूप में तीर्थ जो ज्ञान अक्षर के रूप में परिणत हो सके, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। ।। सूत्र १॥ प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणा मूलम्-तं समासो दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-पच्चक्खं च परोक्खं च ॥सू०२॥ छाया-तत्समासतो द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-प्रत्यक्षञ्च, परोक्षञ्च ॥सूत्र २॥ भावार्थ-पांच प्रकार का होने पर भी वह ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का वर्णित है, जैसे१. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष ॥ सू० २॥ टीका-- इस सूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का वर्णन किया गया है। पांच ज्ञान संक्षेप से दो भागों में विभक्त किए गए हैं, जैसे कि प्रत्यक्ष और परोक्ष जो ज्ञान-आत्मा द्वारा सर्व अर्थों को व्याप्त करता है, उसे अक्ष कहते हैं। अक्ष नाम जीव का है, जो ज्ञान-बल जीव के प्रति साक्षात् रहा हुआ है, उसी को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। जैसे कि कहा भी है "जीवं प्रति साक्षाद् वर्तते यज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्, इन्द्रियमनो निरपेक्षमात्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमदवध्यादिक त्रिप्रकारं, उक्तं च जीवो अक्खो अत्थव्वावरणं, भोयणगुणन्निो जेणं। तं पइ वट्टइ नाणं जं, पच्चक्खं तयं तिविहं॥"
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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