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________________ ज्ञान के पांच भेद और भाव की मर्यादा को लेकर जो ज्ञान मूर्त द्रव्यों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। विषय बाहुल्य की अपेक्षा से ही ये विविध व्युत्पत्तियां की गई हैं। इस विषय में वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं “अव शब्दोऽधः शब्दार्थः, अव-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, अथवा अवधिर्मर्यादा रूपीच्येव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं 'ज्ञानमप्यवधिः, यद्वा अवधानम् आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानम् ।" ४. मनःपर्यवज्ञान-समनस्क-संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिन्तन-मनन मन से ही करते हैं। मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। जब मन किसी भी वस्तु का चिन्तन करता है, तब चिन्तनीय वस्तु के भेदानुसार चिन्तन कार्य में प्रवृत्त मन भी तरह-तरह की आकृतियां धारण करता है। बस वे ही क्रियाएं मन की पर्याय हैं। मन और मानसिक आकार-प्रकार को प्रत्यक्ष करने की शक्ति अवधिज्ञान में भी है, किन्तु मन की क्रियाओं के पीछे जो भाव हैं, उन्हें मनःपर्यवज्ञान ही प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है, अवधिज्ञान नहीं । किन्हीं विचारकों की यह धारणा बनी हुई है कि मनःपर्यवज्ञान मन और उसकी पर्यायों का प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है, किन्तु उन पर्यायों के पीछे जो चिन्तक के भाव हैं, उन्हें अनुमान के द्वारा जानता है, प्रत्यक्ष नहीं । क्योंकि भाव या संकल्प-विकल्प अरूपी होते हैं । मनःपर्यव ज्ञान का विषय अरूपी नहीं है, अतः भावों को प्रत्यक्ष से नहीं, अपितु अनुमान से जानता है। यह धारणा हृदयंगम नहीं होती, इसका समाधान क्या है ? इसका स्पष्टीकरण आगे चलकर मनःपर्यव ज्ञान के प्रकरण में किया जाएगा। यहाँ पर सिर्फ मनःपर्यवज्ञान का संक्षिप्त वर्णन ही अपेक्षित है। ५. केवलज्ञान-केवल शब्द एक, असहाय, विशुद्ध, प्रतिपूर्ण, अनन्त और निरावरण अर्थों में अभीष्ट है। इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित है १. जिसके उत्पन्न होने से क्षयोपशमजन्य चारों ज्ञान का विलीनीकरण होकर एक ही ज्ञान शेष रह जाए, उसे केवल ज्ञान कहते हैं। २. 'जो ज्ञान किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है, अर्थात् इसके लिए मन और इन्द्रिय तथा देह एवं वैज्ञानिक यन्त्रों की आवश्यकता नहीं रहती । वह बिना किसी सहायता के रूपी-अरूपी. मर्त-अमर्त सभी ज्ञेय को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है। अतः उसे केवल ज्ञान कहते हैं। ३. चार क्षायोपशमिक ज्ञान विशुद्ध भी हो सकते हैं, किन्तु वे विशुद्धतम नहीं हो सकते । जो ज्ञान विशुद्धतम है, उसे ही केवल ज्ञान कहते हैं। . ४. क्षायोपशमिक ज्ञान किसी भी एक पदार्थ की सर्वपर्यायों को जानने की शक्ति नहीं रखते, किन्तु जो सभी पदार्थों के सर्व पर्यायों को जानने की शक्ति रखता है, अर्थात् सोलह कला प्रतिपूर्ण ज्ञान को ही केवलज्ञान कहते हैं। ५. जो ज्ञान इतना महान है कि जिससे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान न हो, जो अनन्त-अनन्त पदार्थों
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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