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________________ ज्ञान के पांच भेद मूलम् — नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा - १. ग्राभिणिबोहियनाणं, २. सुयनाणं, ३. श्रहिनाणं, ४. मण- पज्जवनाणं, ५. केवलनाणं ॥ सूत्र१ ॥ छाया - ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - १. आभिनिबोधिकज्ञानं, २. श्रुतज्ञानम्, ३. अवधिज्ञानं, ४. मनः पर्यवज्ञानं, ५. केवलज्ञानम् ॥ सू० १॥ भावार्थ - ज्ञान पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे- १. आभिनिबोधिकज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनः पर्यवज्ञान, और ५. केवलज्ञान ॥सूत्र १ ।। टीका - इस सूत्र में ज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया गया है। यद्यपि भगवत्स्तुति, गणधरावलिका तथा स्थविरावलिका के द्वारा मंगलाचरण किया जा चुका है, तदपि नन्दी शास्त्र का आद्य सूत्र मंगलाचरण के रूप में प्रतिपादन किया गया है । ज्ञान-नय के मत से ज्ञान भी मोक्ष का मुख्य अंग है । ज्ञान और दर्शन ये दोनों आत्मा के असाधारण गुण हैं। आत्मा विशुद्ध दशा में ज्ञाता और द्रष्टा होता है, उसी अवस्था को सिद्ध, अजर, अमर और निरुपाधिकब्रह्म कहा जाता है । साधक दशा में ज्ञान मोक्ष का साधन है और उसके पूर्ण विकास को ही मोक्ष कहते हैं। ज्ञान मंगल का कारण है । अतः ज्ञान का प्रतिपादक होने से पहला सूत्र मंगलरूप है । - अब ज्ञान शब्द का अर्थ दिया जाता है— पदार्थों को जानना ही ज्ञान है, उसे भाव साधन कहते हैं। जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाए, अथवा जिससे जाना जाए, अथवा जिसमें जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय व क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मा के स्वतत्त्व बोध को ज्ञान कहते हैं । ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्तिकार ने अनुयोगद्वार सूत्र में लिखा है - "ज्ञातिर्ज्ञानं, कृत्यलुटोबहुलम् (पा० ३।३।११३ ) इति वचनात् भावसाधनः, शायते परिच्छिद्यते वस्स्वनेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानं, जानाति स्वविषयं परिच्छिनसीति वा ज्ञानं ज्ञानावरण कर्मक्षयोपशमज्ञयजम्यो जीवस्वतत्वभूतो बोध इत्यर्थः । तथा नन्दी सूत्र के वृत्तिकार ने जिज्ञासुओं के सुगम बोध के लिए ज्ञान शब्द केवल भावसाधन और करण - साधन ही स्वीकार किया है, जैसे कि - " ज्ञातिर्ज्ञानं भावे अनट् प्रत्ययः अथवा ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं करणे अनट् शेषास्तु व्युत्पसयो मन्दमतीनां सम्मोहहेतुत्वाम्नोपदिश्यन्ते ।” " 1 सारांश यह है कि आत्मा को ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम व क्षय से जो स्वतत्त्व बोध होता है, बही ज्ञान है । केवल ज्ञान क्षायिक भाव में होता है और शेष चार ज्ञान क्षयोपशम जन्य हैं । अतः सूत्रकार ने नाणं पंचविहं परचसं 'ज्ञान पांच प्रकार से वर्णन किया है, इसी कारण यह सूत्र आदि में दिया है। पण्णसं इस पद के संस्कृत भाषा में चार रूप बनते हैं, जैसे कि - प्रशप्तं प्राज्ञाप्त-प्राज्ञातं प्रज्ञाप्तम् । इन शब्दों का अर्थ है— तीर्थंकर भगवान ने सर्वप्रथम अर्थ रूप से प्रतिपादन किया और गणधरों ने सूत्ररूप से प्ररूपण किया, यह प्रशप्तं शब्द का अर्थ हुआ। जिस अर्थ को गणधरों ने तीर्थंकर से प्राप्त किया, उसे
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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