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________________ तीन प्रकार की परिषद् पदार्थ - दुब्विड्डा – दुर्विदग्धा सभा, जहा – जैसे – गामिल्लो - ग्रामीण विश्रड्डो- पंडित कथइ किसी विषय में निम्माश्रो — पूर्ण न य - नहीं है और न यन ही परिभवस्स - तिरस्कार के दोसेदोष अर्थात् भय से पुच्छर – किसी से पूछता है, किन्तु वायपुराणो – वातपूर्ण वत्थिन्त्र मशक की भांति फुट्ट - फूला हुआ रहता है । भावार्थ - दुर्विदग्धा सभा, जैसे जिस प्रकार कोई ग्रामीण पण्डित किसी भी शास्त्र अथवा विषय में संपूर्ण नहीं है, न वह अपने अनादर के भय से किसी विद्वान् से पूंछता ही है, और अपनी प्रशंसा सुनकर मिथ्याभिमान से वस्ति-मशक की तरह फूला हुआ रहता है । इस प्रकार के जो लोग हैं, उनकी सभा को हे शिष्य ! तुम दुर्विदग्धा सभा समझो । टीका – इन गाथाओं में सूत्रकार ने अनुयोग के योग्य परिषद् के विषय में वर्णन किया है। श्रोताओं समूह को परिषद् कहते हैं । शास्त्र की व्याख्या करते समय अनुयोगाचार्य को पहले परिषद् की परख . करनी चाहिए, क्योंकि श्रोता विभिन्न प्रकृति के होते हैं । इस लिए परिषद् के तीन भेद किए हैं के १. जिस परिषद् में तत्वजिज्ञासु, सम्यग्दृष्टि, बुद्धिमान, गुणग्राही, विवेकशील, विनीत, शांत, प्रतिभाशाली, सुशिक्षित, श्रद्धालु आत्मान्वेषी, परित्तसंसारी, शुक्लपक्षी, शम-संवेग - निर्वेद - अनुकम्पा और आस्था आदि गुणसम्पन्न श्रोता हों, उनकी परिषद् को विज्ञ परिषद् कहते हैं । यह परिषद् सर्वथा उचित है । जैसे उत्तम हंस, पानी को छोड़कर दूध का सेवन करते हैं । घोंवे छोड़कर मोती खाते हैं, वैसे ही गुणसम्पन्न श्रोता दोष-अवगुणों को छोड़कर केवल गुणों को ही ग्रहण करते हैं। यहां परिषद् के प्रकरण में विज्ञ परिषद् ही सर्वोत्तम परिषद् है । २. जो श्रोता पशु-पक्षी के बच्चे के समान प्रकृति से मुग्ध होते हैं, उन्हें इच्छानुसार भद्र या क्रूर जैसे भी बनाना चाहें बना सकते हैं । ऐसे भी पशु-पक्षी होते हैं, जिनकी कला देखकर इन्सान आश्चर्य - चकित हो जाते हैं । इसी प्रकार जिनका हृदय मत-मतान्तरों की कलुषित वासनाओं से अलिप्त है, उन्हें सन्मार्ग में लांना मोक्ष पथ के पथिक बनाना, आगमके उद्भट विद्वान्, संयमी, विनीत, शांत तथा अनुयोगाचार्य बनाना सुगम है। क्योंकि वे कुसंस्कारों से रहित हैं । जिस प्रकार खान से तत्काल निकले हुए असंस्कृत रत्नों को कारीगर जैसा चाहे सुधार कर मुकुट, हार तथा अंगूठी आदि भूषणों में जड़ सकता है । इसी प्रकार जो किसी भी मार्ग या स्थान में लगाए जा सकें। ऐसे श्रोताओं की परिषद् को अविज्ञ परिषद् कहते हैं । ३. कषाय एवं विषय लम्पट, मूढ़, हठीले, कृतघ्न अविनीत, क्रोधी, विकथाओं में अनुरक्त, अभिमानी, स्वच्छन्दाचारी असंवृत्त, श्रद्धा विहीन, मिथ्यादृष्टि, नास्तिक, उन्मार्गगामी, तत्वविरोधी आदि अवगुणयुक्त जो अपने को पंडित समझते हैं, वे सब दुर्विदग्ध हैं । विदग्ध पंडित को कहते हैं । जो पंडित न होते हुए भी अपने को पंडित कहता है, उसे दुर्विदग्ध कहते हैं । जैसे कोई ग्रामीण पंडित किसी भी विषय या शास्त्रों में विद्वत्ता नहीं रखता और न अनादर के भय से किसी विद्वान् से ही पूछता है, किन्तु केवल वायु से पूरित दृति ( मशक ) के तुल्य लोगों से अपने पांडित्य के प्रवाद को सुनकर फूला हुआ रहता
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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