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नन्दीसूत्रम् ।
जे-जो इह-यहाँ गुरु-गुण-समिद्धा-प्रधान गुणों से समृद्ध दोसे विवज्जंति-दोषों को छोड़ देते हैं तं-उसे जाणिया-ज्ञायिका परिसं-परिषद् जाणसु-समझो।
भावार्थ-वह परिषत् संक्षेप से तीन प्रकार की कही गई है, जैसे-विज्ञसभा, अविज्ञसभा और दुर्विदग्धसभा ।
ज्ञायिका परिषद्, जैसे
जिस प्रकार उत्तम जाति के हंस पानी को छोड़कर दूध का पान करते हैं, उसी प्रकार जिस परिषद् में गुणसम्पन्न व्यक्ति होते हैं, वे दोषों को छोड़ देते हैं और गुणों को ग्रहण करते हैं, उसी को हे शिष्य ! तू ज्ञायिका-सम्यग्ज्ञान वाली परिषद् जान । मूलम् +अजाणिया जहा
जा होइ पगइमहुरा, मियछावय-सीह-कुक्कुडयभूया।
रयणमिव असंठविआ, अजाणिया सा भवे परिसा ॥ ५३ ॥ छाया-अज्ञायिका यथा
या •भवति प्रकृतिमधुरा, मृग-सिंह-कुर्कुटशावकभूता।
रत्नमिवाऽसंस्थापिता, अज्ञायिका सा भवेत् पर्षद् ।। ५३ ।। .. पदार्थ-अजाणिया-अज्ञायिका जहा-जैसे
जा-जो मियछावय-मृगशावक, सीह --सिंह और कुक्कुडयभूत्रा--कुर्कुट के शावक की भांति . पगइमहुरा---प्रकृति से मधुर भवइ-होती है, तथा रयणमिव-रत्न की तरह असंठविश्रा-असंस्थापित अर्थात् असंस्कृत होती है, सा-वह अजाणिया-अज्ञायिका परिसा-परिषद् भवे-होती है।
भावार्थ-अज्ञायिका परिषद्, जैसे
जो श्रोता मग, शेर और कुर्कुट के अबोध बच्चों के समान स्वभाव से मधुरभोले-भाले होते हैं, उन्हें जिस प्रकार से शिक्षा दी जाए, वे उसी प्रकार उसे ग्रहण कर लेते हैं तथा जो रत्न की तरह असंस्कृत होते हैं, उन रत्नों को जैसे चाहें, उसी तरह बनाया जा सकता है, ऐसे ही अनभिज्ञ श्रोताओं की सभा को हे शिष्य ! तुम अज्ञायिका परिषद् जानो। मूलम्-दुविअड्ढा जहा
न य कत्थइ निम्मानो, न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं ।
वत्थिव्व वायपुण्णो, फुट्टइ गामिल्लय विअड्ढो ॥ ५४ ॥ छाया-दुर्विदग्धा यथा
न च कुत्राऽपि निर्मातः, न च पृच्छति परिभवस्य दोषेण । वस्तिरिव वातपूर्णः, स्फुटति ग्रामेयको विदग्धः ॥ ५४ ॥