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________________ तीन प्रकार की परिषद् ३७ हो जाने से सायं काल हैरानी परेशानी के साथ अपने घर की ओर लौटे । मार्ग में उन्हें चोरोंने लूट लिया, वे जान बचाकर खाली हाथ घर पहुँचे । यह पारस्परिक द्वन्द्व का अशुभ परिणाम है। इसके प्रतिपक्ष - इसी प्रकार उसी गांव की दूसरी अहीर दम्पति भी घी बेचने के लिए नगर में पहुँचकर घीमंडी बैलगाड़ी से क्रमशः घी के घड़े उतारने में तत्पर हुई । असावधानी से अहीरनी से घड़ा गिर गया, वह पति से कहने लगी- "पतिदेव ! मेरे से भूल हो गई, अच्छी तरह पकड़ नहीं सकी, यह भूल मेरी है आपकी नहीं, अतः मुझे क्षमा कर दीजिए।" इस प्रकार शांतभाव से पति को संतुष्ट किया और दोनों शीघ्र ही मौनरूप से गिरे हुए घी को समेटने लगे, जिससे बहुत-कुछ घी सुरक्षित बचा लिया। जो घी मिट्टी में मिल गया था, उसे एकत्रित करके जैसे-तैसे निकाल लिया । घी बेचकर सूर्यास्त होने से पहले-पहले सुरक्षित अपने घर पहुँच गए । इसका निष्कर्ष यह निकला – जो शिष्य सूत्रार्थ को ग्रहण किए बिना आचार्य के कहने पर कलह करने लग जाते हैं, वे श्रुतज्ञानरूपी घी खो बैठते हैं, ऐसे शिष्य श्रुत के अयोग्य एवं अनधिकारी हैं । जो सूत्र तथा अर्थ ग्रहण करते समय भूल-चूक हो जाने पर, आचार्य के द्वारा प्रेरणा करने पर अपनी भूल " स्वीकार करके क्षमा याचना करते हैं और गुरुदेव को सन्तुष्ट करके पुनः सूत्रार्थं ग्रहण करते हैं, वे शिष्य श्रुतज्ञान के अधिकारी और सुपात्र होते हैं । तीन प्रकार की परिषद् - श्रोताओं के समूह को परिषद् या सभा कहते हैं, इस के विषय में शास्त्रकार कहते हैंतिविहा पण्णत्ता, तंजहा - जाणिया, प्रजाणिया, मूलम् -सा समास दुव्वियड्ढा | जाणिया जहा - खीरमिव जहा हंसा, जे घुट्टंति इह गुरु-गुण-समिद्धा । दोसे अ विवज्जंति, तं जासु जाणिय परिसं ।। ५२ ।। छाया - सा समासतस्त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - ज्ञायिका, अज्ञायिका, दुर्विदग्धा । ज्ञायिका नाम यथा क्षीरमिव यथा हंसा:, ये घुट्टन्ति-इह गुरु-गुण-समृद्धाः । दोषांश्च विवर्जयन्ती, तां जानीहि ज्ञायिकां परिषदम् ।। ५२ ।। पदार्थ – सा – वह समालो— संक्षेप में तिविहा- तीन प्रकार से पण्णत्ता - कही गई है, तंजहाजैसे -- जाणिया - शायिका, अजाणिया - अशायिका, दुब्बियड्डा – दुर्विदग्धा । जाणिया-ज्ञायिका - जहा- यथा जहा हंसा— जैसे हंस खीरमित्र- पानी को छोड़ कर दुग्ध का घुट्टति – पान करते हैं, श्र - और
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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