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नन्दीसूत्रम्
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स्वस्थ हो गये । भेरी की महिमा सुनकर दूर-दूर से रोगी आने लगे। उन्होंने भेरीवादक से प्रार्थना की कि हमारे पर अनुग्रह करते हुए भेरी बजाई जाये । परन्तु श्रीकृष्णजी की आज्ञा के अनुसार उसने भेरी बजाने से इन्कार कर दिया । रोगियों ने घूस देकर भेरीवादक को सहमत कर लिया। भेरीवादक ने कहा-यदि मैं कृष्णजी की आज्ञा के विरुद्ध भेरी बजाऊँगा तो उसका शब्द सुनकर कृष्णजी कुपित होकर मुझे दण्ड देंगे। अतः आप के रोग की शान्ति के लिए इसमें प्रयुक्त द्रव्य देता हूँ, इसीसे रोग शान्त हो जाते हैं । यह कहकर भेरी में लगे द्रव्य में से उतार कर थोड़ा-सा उन्हें दिया। रोगी उसके प्रयोग से स्वस्थ हो गये । यह देखकर अन्य रोगी आने लगे । भेरीवादक उनसे रिश्वत लेकर भेरी का मसाला उतार-उतार कर देने लगा और इस प्रकार देने से भेरी का सारा दिव्य-द्रव्य समाप्त हो गया । छह महीने के पीछे भेरी बजाई। परन्तु उससे किसी का रोग शमन न हो सका । कृष्णजी को जब सारा रहस्य ज्ञात हुआ तो उस भेरी-वादक की भर्त्सना करके उसे अपने राज्य से निकाल दिया। जनहित और परोपकार की दृष्टि से श्री. कृष्णजी ने पुनः अष्टम भक्त कर उस देव की आराधना की । प्रसन्न हो देव ने भेरी को पूर्ववत् कर दिया । तत्पश्चात् श्री कृष्णजी ने प्रामाणिक व्यक्तियों के पास भेरी दी और वे यथाज्ञा छह महीने पीछे बजाकर भेरी से लाभान्वित होने लगे । भेरीवादक के पास असमय में भेरी बजाने के लिए रोगी आते, प्रलोभन देते, किन्तु वे कृष्णजी की आज्ञा अनुसार ही कार्य करते जिससे कृष्णजी ने प्रसन्न होकर उन्हें पारितोषिक दिया और पदोन्नति भी की।
इस दृष्टान्त का भावार्थ यह है-आर्य क्षेत्ररूप द्वारिका नगरी है, तीर्थंकर रूप कृष्णवासुदेव हैं, पुण्यरूप देवता है, जिनवाणी भेरी तुल्य है, भेरीवादक तुल्य साधु और कर्म रूप रोग । इसी प्रकार जो शिष्य आचार्य द्वारा प्रदत्त सूत्रार्थ को छिपाते हैं, बदलते हैं, पहले पाठ को निकाल कर नए शब्द अपने मत की पुष्टि के लिए प्रक्षेप करते हैं, ऋद्धि, रस, साता में गृद्ध होकर सूत्रों की तया अर्थों की मिथ्या । प्ररूपणा करते हैं । स्वार्थपूर्ति के हेतु स्वेच्छानुसार जिनवाणी में मिथ्याश्रुत का प्रक्षेप करते हैं, वे शिष्य आगमज्ञान के अयोग्य एवं अनधिकारी हैं। ऐसे श्रोता या शिष्य अनन्त संसारी होते हैं, संसार के आवर्त में फंसते हैं, और अनन्त दु:खों के भागी बनते हैं। तथा जो जिनवाणी में किसी भी प्रकार का संमिश्रण नहीं करता, शुद्ध जिनवाणी की रक्षा करता है, वह मोक्ष तथा सुख-सम्पत्ति को प्राप्त करता है, श्रुतज्ञान का आराधक बनता है तथा जिनवाणी पर शुद्ध श्रद्धान करता है, शुद्ध प्ररूपणा करता है और शुद्ध स्पर्शन करता है, वह संसार में नहीं भटकता, भगवदाज्ञा का आराधक बन कर शीघ्र ही संसार-अटवी को पार कर जाता है । ऐसे श्रोता या शिष्य श्रुताधिकारी है।
१४-अहीर-दम्मति–दूध-घी बेचने वाले एक अहीर जाति के पति-पत्नी घी बेचने के लिए घी के घट भरकर बैलगाड़ी तैयार करके दूसरे नगर की ओर प्रस्थान कर गए। नगर में जहाँ घी की मंडी थी, वहाँ बैलगाड़ी को रोका । अहीर ने गाड़ी से घड़े उतारने शुरू किए और अहीरनी नीचे लेने लगी। दोनों की असावधानी से अकस्मात् घृतघट गिर पड़ा। जिससे अधिकतर घी जमीन में मिट्टी से लिप्त हो गया। इस पर दोनों झगड़ने लगे । अहीर कहने लगा कि तूने ठीक तरह से घड़ा क्यों नहीं पकड़ा? उसकी पत्नी कहने लगी--मैं तो घड़े को लेने वाली थी, घड़ा अभी तक पकड़ा ही नहीं था, इतने में आपने छोड़ दिया, इससे घड़ा गिर पड़ा। इस तरह दोनों में वाद-विवाद बहुत देर तक होता रहा । सारा घी अग्राह्य हो गया और जानवर चट कर गए। कुछ कलह में, कुछ घी के बिकने में अधिक विलंब