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श्रोता के चौदह दृष्टान्त
द्वारवती नगरी के बाहर राजमार्ग के एक ओर कुत्ते का रूपधारण करके लेट गया। कुत्ते का रंग काला था, शरीर में कीड़े पड़े हुए थे, दुर्गन्ध से आसपास का क्षेत्र व्याप्त था। देखने वालों को ऐसा प्रतीत होता था जैसे कुत्ते का कलेवर पड़ा हुआ हो । मुख खुला हुआ था, दांत बाहर स्पष्टतया दीख रहे थे ।
__ ऐसे समय में इधर से कृष्णजी बड़े समारोह से अरिष्टनेमि भगवान के दर्शनार्थ उसी मार्ग से निकले। कुत्ते की उस महादुर्गन्ध से सारी सेना घबरा उठी। कोई मुंह ढांककर, कोई नाक पकड़कर, कोई प्राणायाम से, कोई द्रुत गति से, कोई उन्मार्ग से जाने लगे। कृष्ण वासुदेव जी ने वस्तु स्थिति को समझाऔदारिक शरीर की असारता जानते हुए तथा किंचिन्मात्र भी घृणा न करते हुए उस कुत्ते के सन्निकट पहुँचे और कहने लगे कि-इस कुत्ते की दन्तश्रेणी ऐसी प्रतीत होती है, जैसे कि मोतियों की चमकती हुई श्रेणी । यह सुनते ही देवता आश्चर्यान्वित हुआ और सोचने लगा कि मेरे इस बिभत्स शरीर तथा असह्य दुर्गन्ध के कारण समीप आने का कोई भी प्रयास नहीं करता था, सभी थू-थू करते हुए दूर से ही निकल जाते थे, किन्तु कृष्णजी ही समीप आए फिर भी गुण ही ग्रहण किया है। जहाँ बिभत्स रस की अनुभूति होती हो वहां से भी गुण ग्रहण करना, यह इन्हीं में विशेषगुण देखने में आया है। तत्पश्चात् कृष्णजी द्वारका नगरी के बाहिर उद्यान में ठहरे हुए अरिष्टनेमि भगवान के पास दर्शनार्थ चले गये।
____ कालान्तर में वही देव फिर परीक्षा लेने के लिए आया और कृष्णजी के विशिष्ट घोड़े को लेकर भाग गया। सैनिकों ने पीछा किया, किन्तु वह किसी के हाथ नहीं आया। तब कृष्ण वासुदेव स्वयं उसके मुकाबले पर घोड़ा छुड़ाने के लिए गए। वह देवता बोला-आप मेरे साथ युद्ध करके घोड़ा ले जा सकते हैं, जो जीतेगा घोड़ा उसीका होगा । तब कृष्णजी ने कहा-युद्ध अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे कि-मल्लयुद्ध, मुष्ठियुद्ध, दृष्टियुद्ध इत्यादि युद्धों में कौनसा युद्ध तुम पसन्द करते हो? देव मनुष्याकृति में बोला-मैं पीठ से युद्ध करना चाहता हूँ, आपकी भी पीठ और मेरी भी पीठ हो। इसका उत्तर देते हुए कृष्णजी ने कहा कि-मैं ऐसा निर्लज्ज युद्ध करके अश्व प्राप्त करूं यह मेरी शान से विरुद्ध है। यह सुनकर देव हर्षान्वित होकर अपने असली रूप में वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर कृष्ण जी के सम्मुख प्रकट होकर चरणकमलों में मस्तक झुकाकर कहने लगा--आपकी प्रशंसा देवसभा में इन्द्रने की थी। कुत्ते का रूप भी मैंने ही धारण किया था। दो गुण आपमें विशिष्ट हैं, यह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया । प्रशंसा करके देव कहने लगा-वरदान के रूप में आपको मैं यह दिव्य भेरी देना चाहता हूँ, छः महीने के बाद एक दिन इसे बजाया जाय तो आपके राज्य में यदि छ: महीने की रोग-महामारी हो, वह शान्त हो जायेगी और अनागत काल छ: महीने तक कोई वीमारी नहीं फैलेगी। जो इसकी आवाज़ को सुनेगा वह भले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो, तुरन्त स्वस्थ हो जायेगा । इसके साथ ही यह भी शर्त है कि छः मास की समाप्ति से पहले इसे न बजाया जाए। '
देव ने कृष्णजी को भेरी अर्पण करते समय कहा-इसमें यह विशिष्ट द्रव्य लगा हुआ है, इसीके प्रभाव से इसमें रोग को नष्ट करने की शक्ति है, इसके अभाव में साधारण भेरियों के तुल्य ही है। यह कहकर देव अपने स्थान को चला गया।
श्रीकृष्णजी ने भेरी अपने विश्वास पात्र सेवक को सौंप दी तथा भेरी के विषय में भी सब कुछ बतला दिया। उसी समय द्वारिका में विशेष रोग उत्पन्न हो गया जिससे जनता पीड़ित होनी लगी। श्रीकृष्णजी की आज्ञा से भेरी बजायी गई। उसका शब्द जहां तक पहुँच सका, वहाँ तक सभी प्रकार के रोगी