SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दीसूत्रम् ( ११ ) जाहक - सेह या चूहे जैसा एक प्राणी होता है, उसका स्वभाव है कि - दूध, दही आदि खाद्य पदार्थ जहाँ हैं वहीं पहुँचकर थोड़ा-थोड़ा पीता है और उस बर्तन के आसपास लगे हुए लेप को चाटता है, इस कमसे शुद्ध वस्तु को ग्रहण तो करता है, किन्तु उसे खराब नहीं करता। इसी प्रकार जो धोता था शिष्य गुरु के निकट बैठकर विनय से श्रुतज्ञान प्राप्त करता है। फिर मनन-चिन्तन करता है। पहली नी हुई वाचना को समझता रहता है और आगे पाठ लेता रहता है, नहीं समझने पर गुरु से पूछता रहता है, ऐसा शिष्य या श्रोता आगमज्ञान का अधिकारी है । ४ (१२) गौ- किसी यजमान ने चार ब्राह्मणों को पहले भोजन खिलाकर यथाशक्ति उन्हें दक्षिणा दी और एक प्रसूता गो भी दी जो चारों के लिए सांझी थी और उनसे कह दिया गया कि चारों बारी-बारी से दूध दोह लिया करें। अर्थात् जिसकी बारी हो उस दिन वही उसकी सेवा तथा दोहन करे। ऐसा समझाकर उन्हें विदा किया। ब्राह्मण स्वार्थी थे । अतः उन्होंने परस्पर बैठकर अपने दिन निश्चित कर लिए प्रथम दिन वाले ब्राह्मण ने अपना समय देखकर दूध निकाला और विचारने लगा यदि मैं खाना-दाना आदि देकर गाय की सेवा करूंगा तो इसका दूध दूसरा दोह लेगा, मेरा खिलाया पिलाया व्यर्थ जाएगा । ऐसा विचार कर गाय को खाना आदि कुछ न दिया और छोड़ दिया। क्रमशः सभी ने दूध तो निकाला परन्तु सेवा न की । परिणामस्वरूप गाय दूध से भाग गई और भूख-प्यास से पीड़ित होकर कुछ ही दिनों में मर गई, जिसका ब्राह्मणों को कुछ भी दुःख न हुआ। क्योंकि वह मूल्य से तो खरीदी नहीं थी, दान आयी थी । ब्राह्मणों की इस निर्दयता और मूर्खता से जनता में अपवाद होने लगा और उन्हें गांव छोड़ कर अन्यत्र कहीं जाना पड़ा। इसी प्रकार जो शिष्य अथवा श्रोता गुरु की सेवा भक्ति नहीं करता और आहार -पानी आदि भी लाकर नहीं देता, और सूत्र -ज्ञान प्राप्त करने के लिए बैठ जाता है, वह भी शास्त्रीय ज्ञान का अधिकारी नहीं है। - इसके विपरीत किसी सेठ ने चार ब्राह्मणों को गाय का संकल्प किया। वे चारों गाय की तन-मन से सेवा करते। उन सबका मुख्य उद्देश्य गाय की सेवा का था, दूध का नहीं वे चारों क्रमशः गाय की खूब सेवा करते और दोनों समय पर्याप्त मात्रा में दूध भी दोहते तथा बछड़े को भी पर्याप्त मात्रा में पिलाते । अधिक क्या ? गो-सेवक की भांति अपना कर्तव्य पालन करके अभीष्ट फल प्राप्त करते। इससे ब्राह्मण भी सन्तुष्ट थे और गाय भी पुष्ट थी तथा दूध भी खूब देती। इसी प्रकार सुशिष्य या धोता विचार करे कि यदि मैं आचार्य या गुरु की अच्छी तरह सेवा करूंगा, आहार, वस्त्र, स्थान, औषधोपचार से साता उपजाऊंगा तो गुरुदेव दीर्घ काल तक नीरोग रहकर हमें ज्ञानदान देते रहेंगे तथा दूसरे गणसे आए हुए साधुओं को भी ज्ञानदान देते रहेंगे। इस प्रकार शिष्यों को वैयावृत्य करते देखकर अन्य गण से आए साधु भी विचार करेंगे कि ये शिष्य इनकी इतनी विनय, भक्ति सेवा करते हैं, हमें भी सेवा में हाथ बटाना चाहिए। वाचनाचार्य जितने प्रसन्न रहेंगे उतना ही हमें आगम-ज्ञान से समृद्ध बनाएंगे इनको साता पहुँचाने से तथा नीरोग एवं सन्तुष्ट रखने से ज्ञानरूपी दुग्ध निरन्तर मिलता रहेगा । ऐसे शिष्य ही शास्त्रीयज्ञान के अधिकारी तथा रत्नत्रय की आराधना करके अजर-अमर हो सकते हैं । १३ भेरी – एक बार सौधर्माधिपति शक्रेन्द्र ने अपनी महापरिषद् में देव देवियों के सम्मुख महाराजा कृष्ण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की कि उनमें दो गुण विशेष हैं एक गुणग्राहिकता और दूसरा नीचपुढ से दूर रहना । एक देव शक्रेन्द्र के वचनों पर श्रद्धा न करता हुआ परीक्षा लेने के लिए मध्यलोक में
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy