________________
नन्दीसूत्रम्
दूष्यगणी के चरणों में शतशः वन्दन किया जाता है। दूष्यगणीजी आसन्नोपकारी होने से उन्हें देववाचक जी ने पूर्वापेक्षया अधिक भावभीनी वन्दना की है।
मूलम्-जे अन्ने भगवंते, कालिय-सुय-प्राणुओगिए धीरे।
ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं ॥५०॥ छाया-येऽन्ये भगवन्त:, कालिकश्रुता-नुयोगिनो धीराः। ।
तान् प्रणम्य शिरसा, ज्ञान य प्ररूपणां वक्ष्ये ॥५०॥
पदार्थ-अन्ने अन्य-जो-जो कालिय-सुय-प्राणुअोगिए-कालिक श्रुत तथा अनुयोग के वेत्ता हैं . धीरे-धीर भगवंते—विशेष श्रुतधर भगवन्त हैं, ते—उन्हें सिरसा-मस्तक से पणमिऊण-प्रणाम करके नाणस्स-ज्ञान की परूवणं-प्ररूपणा वोच्छं-कहूंगा
भावार्थ-इन युगप्रधान प्राचार्यों के अतिरिक्त अन्य जो भी कालिक सूत्रों के ज्ञाता और अनुयोगधर धीर आचार्य भगवन्त हुए हैं, उन्हें प्रणाम करके (मैं देववाचक) भगवान् ने जो ज्ञान की प्ररूपणा की है, उसे कहूँगा।
टीका-प्रस्तुत गाथा में जिन अनुयोगधर स्थविरों की नामावली, स्तुति और वन्दन के विषय में लिखा जा चुका है, उनके अतिरिक्त अन्य जो आचार्य कालिक-श्रत एवं अनुयोग के धारण करने वाले हैं, उन सभी को नतमस्तक हो प्रणाम करने के अनन्तर मैं देववाचक ज्ञान की प्ररूपणा करूंगा।
इस गाथा में देववाचकजी ने कालिकतानुयोग के धर्ता प्राचीन एवं तयुगीन अन्य आचार्यों को जिनका कि नामोल्लेख नहीं किया गया, उन्हें भी विनयावनत श्रद्धा से वन्दन करके ज्ञान की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की है। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि अंगश्रुत और कालिकश्रुत धर्ता आचार्य उद्भट विद्वान थे। अतः गाथा मैं धीरे पद दिया है, जैसे कि-विशिष्ट धिया राजमानस्तान्-जो विशिष्ट बुद्धि से सुशोभित हैं तथा भगवंते-जो श्रुतरत्न राशि से परिपूर्ण हैं अथवा समग्र ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हैं, इतना ही नहीं, जो-जो कालिक श्रुतानुयोगी हैं, उन सबको नमस्कार किया गया है।
गाथा में जो परूवणं पद दिया है, वह वक्ष्यमाण ज्ञान के भेद-उपभेद के कथन करने वाले सूत्र से अभिप्रेत है । देववाचक जी ने अंगश्रुत, कालिकश्रुत तथा 'ज्ञानप्रवाद' पूर्व रूप महोदधि से संकलन करके ज्ञान के विषय को लेकर इस सूत्र की रचना की है। जिसका विशेष वर्णन यथास्थान प्रदर्शित किया जाएगा।
देववाचक कौन हए हैं ? इसका उत्तर वृत्तिकार अपनी वृत्ति में लिखते हैं-दृष्यगणिशिव्यो देववाचकः इति अर्थात् देववाचक जी दूष्यगणी के शिष्य हुए हैं।
-इति अहंदादि स्तुति