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युगप्रधान स्थविरावलि-वन्दन
करते हैं । वे द्वादश प्रकार का तप, अभिग्रह आदि नियम, दस प्रकार का श्रमणधर्म, दस प्रकार का सत्य, सतरह प्रकार का संयम, सात प्रकार का विनय, क्षमा, सुकोमलता, सरलता तथा शील आदि गुणों से विख्यात थे। उस युग में यावन्मात्र अनुयोग-आचार्य थे, उनमें वे प्रधान थे। इस गाथा में मुख्यतया ज्ञान और चारित्र की सिद्धि की गई है। श्रतज्ञान में अनुयोग पद और चारित्र में उक्त गाथा के तीन पदों में वणित किए गए गुणों का अन्तर्भाव हो जाता है । यह गोथा प्रत्येक आचार्य के लिये मननीय एवं अनुकरणीय है। उक्त गाथा में क्रिया न होने से ऐसा लगता है कि-४६ की गाथा से सम्बन्धित है । वृत्ति और चूणि में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है।
मूलम्-सुकुमाल कोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खण पसत्थे ।
पाए पावयणीणं, पडिच्छय-सएहिं पणिवइए ॥४६॥ छाया-सुकुमार-कोमलतलान्, तेषां प्रणमामि लक्षणप्रशस्तान् ।
पादान् प्रावचनिकानां, प्रातीच्छिकशतैः प्रणिपतितान् ॥४६॥
पदार्थ-तेसिं पावयणीणं-पूर्वोक्त गुणसम्पन्न उन प्रावचनिकों के लक्खणपसत्थे-प्रशस्त लक्षणों से युक्त सुकुमाल कोमलतले-सुकुमार सुन्दर तलवेवाले–पडिच्छय सएहिं पणिवइए-और जो सैकड़ों प्रतीच्छकों के द्वारा प्रणामप्राप्त हैं, ऐसे विशेषणों से युक्त पाए-चरणों को पणमामि-प्रणाम करता हूँ।
___ भावार्थ--पूर्वोक्त गुणों से युक्त उन युगप्रधान प्रवचनकारों के प्रशस्त लक्षणोपेत सुकुमार सुन्दर तलवेवाले, सैंकड़ों प्रतीच्छकों-शिष्यों द्वारा प्रणाम किए गए पूज्य चरणों को में प्रणाम करता हूँ।
टीका-इस गाथा में पुनः दूष्यगणी के विशिष्ट गुणों का तथा पादपद्मों का उल्लेख किया गया है। जिनके चरण कमल शंख, चक्र, अंकुश आदि शुभलक्षणों से सुशोभित थे। उनके चरणतल कमल की भांति सुकुमार एवं सुन्दर थे। वाणी में माधुर्य, मन में स्वच्छता, बुद्धि में स्फूरण, प्रवचन प्रभावना में अद्वितीय, चारित्र में समुज्ज्वलता, दृष्टि में समता, कर कमलों में संविभागता, इत्यादि गुणों से वे सम्पन्न थे।
पडिच्छय सएहिं पणिवइए-सैकड़ों प्रतीच्छिकों द्वारा जिनके चरणकमल सेवित एवं वंदनीय थे। जो मुनिवर विशेष श्रुताभ्यास के लिए अपने-अपने आचार्य की आज्ञा प्राप्त करके अन्य गण से आकर विशिष्ट वाचकों से वाचना लेते हैं या उसी गण के जिज्ञासु वाचना ग्रहण करते हैं, वे प्रातीच्छिक कहलाते हैं, जैसे
___पडिच्छय सएहि-वृत्तिकारने इस पद की व्याख्या निम्न प्रकार से की है-"प्रातीच्छिकशतैः प्रणिपतितान् इह ये गच्छान्तरवासिनःस्वाचार्य पृष्ट्वा गच्छान्तरेऽनुयोगश्रवणाय समागच्छन्ति अनुयोगाचार्येण च, प्रतीच्छयन्ते–अनुमन्यन्ते, ते प्रातीच्छिका उच्यन्ते, स्वाचार्यानुज्ञापुरःसरमनुयोगाचार्यप्रतीच्छया चरन्तीति प्रातीच्छिका इति व्युत्पत्तेः, तेषां शतैः प्रणिपतितान्– नमस्कृतान् ‘प्रणिपतामि' नमस्करोमि"।
भगवद्वाणी के रहस्यों को जो अपने प्रतीच्छकों के लिए वितरण करते हैं, ऐसे अनुयोग आचार्य