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________________ नन्दीसूत्रम् महान् होते हैं जैसे-खान--आकर से खनिज पदार्थ निकालते २ वह कभी क्षीण नहीं होती, वैसे ही दूष्यगणीजी भी अर्थ-महार्थ की खान के तुल्य थे । वे विशिष्ट मूलगुण और उत्तरगुणसम्पन्न मुनिवरों के सम्मुख सूत्र की अपूर्व शैली से व्याख्या करते थे, धर्मोपदेश करने में दक्ष थे। श्रुतज्ञान विषयक प्रश्न पूछनेपर उनका पूर्णतया समाधान करते थे । स्वभाव से मधुरभाषी होने के कारण जब कोई शिष्य लक्ष्यबिन्दु से प्रमादादि के कारण स्खलित होता, तब उसे मधुर वचनों से ऐसी शिक्षा देते, जिससे पुनः वैसी भूल अपने जीवन में नहीं होने देता। उनका शासन और प्रशिक्षण : न्त एवं व्यवस्थितरूप से चल रहा था, क्योंकि हितपूर्वक मधुर वचन कोप को उत्पन्न नहीं करता, कहा भी है "धम्ममइएहिं अइसुन्दरेहिं, कारण-गुणोवणीएहिं। पल्हायंतो य मणं सीसं, चोएइ आयरिश्रो"। अर्थात्-कषायों को शान्त करने वाले, संयम गुणों की वृद्धि करनेवाले, ऐसे धर्ममय अतिसुन्दर वचनों से शिष्य के मन को प्रसन्न करते हुए आचार्य उसे संयम में सावधान करते हैं। जो स्वयं प्रशान्त होता है, वही दूसरों को शान्त एवं सन्मार्ग में लगा सकता है। सुसमण-वक्खाण-कहण-णिवाणि-इस पद से यह भी सूचित होता है कि-सुशिष्यों को शिक्षाप्रदान करने से गुरु को समाधि प्राप्त हो सकती है, न कि कूशिष्यों को। पयईए महुरवाणिं-इस पद से शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक साधक को प्रकृति से ही मधुरभाषी होना चाहिए, न तु कपट से । आचार्य श्री दूष्यगणीजी के गुणोत्कीर्तन करके तथा उनकी विशेषता बताने के अनन्तर चतुर्थ पदमें उनको भावभीनी वन्दना की गई है। मूलम्-तव-नियम-सच्च-संजम, विणयज्ज्व-खंति-मद्दव-रयाणं । सीलगुण-गद्दियाणं, अणुओग-जुगप्पहाणाणं ॥४८॥ छाया--तपो नियम सत्य-संयम, विनयार्जव-शान्ति-मार्दव-रतानाम् । शीलगुण-गर्दितानाम्, . अनुयोगयुग-प्रधानानाम् ॥४८॥ पदार्थ-तव-नियम-सच्च-संजम-विणयज्ज्व-खंति-मद्दव रयाणं-तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, शान्ति, मार्दव आदि गुणों में रत-तत्पर रहने वाले सीलगुण-गद्दियाणं-शील आदि गुणों में ख्यातिप्राप्त, अणुप्रोग-जुगप्पहाणाणं-जो अनुयोग की व्याख्या करने में युगप्रधान थे। भावार्थ--तपस्या, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव-सरलता, क्षमा, मार्दव-नम्रता आदि श्रमणधर्म में संलग्न, तथा शीलगुणों से विख्यात और तत्कालीन युग में अनुयोग की शैली से व्याख्यान करने में युगप्रधान इत्यादि विशेषताओं से युक्त (श्री दूष्यगणि जी की प्रशंसा की गयी है ।) टीका-इस गाथा में पुनः दूष्यगणी के गुणों का दिग्दर्शन कराया गया है । असाधारण गुणों की स्तुति ही वस्तुतः स्तुति कहलाती है। वे जिन गुणों से अधिक विभूषित थे, यहाँ उन्हीं गुणों का वर्णन
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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