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युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन
सुमुणिय-सुत्तत्थधारयं-वे अपने समय में सूत्र और अर्थ के विशेषज्ञ थे, क्योंकि जीवनोत्थान मनःसंयम, वाकसंयम और कायसंयम तथा आगमों का अध्ययन, मनन,चिन्तन, निदिध्यासन करने से ही हो सकता है अन्यथा नहीं।
सम्भावुब्भावणया-वे पदार्थों के यथावस्थित प्रकाशन में पूर्ण दक्ष थे अर्थात् पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनकी व्याख्या करते थे। वह व्याख्या अविसंवादी, सत्य एवं सम्यक होने से सर्वमान्य होती थी।
इस कथन से यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि साधक सूत्र और अर्थ को गुरुमुख से श्रवण करे और उसे श्रद्धा के साथ हृदय में धारण करे । तत्पश्चात् स्याद्वाद शैली से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का विवेचन करे, तब ही जनता में धर्मोपदेश का प्रभाव पड़ सकता है।
'मुणिय'-पद 'ज्ञा' धातु को 'मुण' आदेश करने से होता है, जैसे कि-'जो जाणमुणावति प्राकृतलक्षणाज्जानातेMण आदेशः'।
मूलम्-अत्थ-महत्थ-क्खाणि, सुसमण-वक्खाण-कहण-निव्वाणि ।
पयईए महुरवाणिं, पयो पणमामि दूसगणिं ॥४७॥ छाया-अर्थ-महार्थ-खनि, सुश्रमण-व्याख्यान-कथन-निर्वृत्तिम् ।।
प्रकृत्या मधुरवाणिक, प्रयतः प्रणमामि दूष्यगणिनम् ॥४७॥
पदार्थ-जो अत्थ-महत्थ-क्खाणि---शास्त्रों के अर्थ व महार्थ की खान के समान तथा सुसमणमूलोत्तर गुणसम्पन्न सुश्रमणों के लिए वक्खाण-आगमों का व्याख्यान करने पर और कहण-पूछे हुए विषयों के कथन पर निब्वाणि-शान्ति अनुभव करने वाले, जो पयईए-प्रकृति से महुरवाणि-मधुर वाणी वाले, उन दूसगणि-दूष्यगणीजी को पयो—प्रयत्नपूर्वक पणमामि-प्रणाम करता हूँ।
भावार्थ--जो शास्त्रों के अर्थ और महार्थ की खान के समान अर्थात् भाषा, विभाषा, वातिका आदि से अनुयोग की व्याख्या करने में कुशल हैं, जो सुसाधुओं को शास्त्र की वाचना अर्थात् ज्ञानदान देने में और शिष्यों द्वारा पूछे हुए विषयों का उत्तर देने में समाधि का अनुभव करते हैं, जो प्रकृति से मधुरभाषी हैं, ऐसे उन दूष्यगणी आचार्य को सम्मान पूर्वक प्रणाम करता हूँ। __टीका-उक्त गाथा में आचार्य लोहित्य की विशेषता का दिग्दर्शन कराने के अनन्तर
(३२) श्री दूष्यगणीजी की स्तुति की गई है । सूत्र की व्याख्या को अर्थ और उसकी विभाषा, वार्तिक, अनुयोग, नय और सप्तभंगी आदि के द्वारा विशिष्ट अर्थ निकालने की शक्ति को महार्थ कहते हैं। अस्थमहत्थक्खाणि-इस पद से यह भी ध्वनित होता है कि सूत्र अल्पाक्षरयुक्त होता है और उसके अर्थ