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________________ ४६ नन्दीसूत्रम् हृदय में दयागुण के उत्पादक तथा हिंसक को अहिंसक बनाने में निष्णात एवं दक्ष भी थे, उन्होंने अनेक हिंसक प्राणियों को दयालु बनाया था। __पहाणे-वे अङ्गशास्त्रों तथा अङ्गवाह्य शास्त्रों के स्वाध्याय करने में अग्रगण्य युगप्रर्वतक आचार्य थे। अणुशोगिए वरवसमे-इस पद से सिद्ध होता है कि उनकी आज्ञा को चतुर्विधसंघ भली-प्रकार से मानता था। इसी कारण उन्हें आज्ञा की प्रवृत्ति कराने में 4रवृषभ विशेषण दिया है । नाइल-कुल-वंस-नंदिकरे-इस पद से यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार पूर्व गाथाओं में "शाखाओं" का वर्णन किया गया है, इसी प्रकार यह आचार्य भी नागेन्द्र-कुल वंशीय थे । वे सब तरह के भयों का सर्वथा उच्छेद करने वाले और हितोपदेश करने में पूर्णतया समर्थ थे, इन विशेषणों से युक्त आचार्य भूतदिन्न को स्तुतिपूर्वक वन्दन किया गया है। यहां प्रत्येक पद अनुभव करने योग्य है। किसी २ प्रति में 'भूय-हियप्पगब्भे' के स्थानपर 'भूय-हियअप्पगब्भे' पद भी है । 'भूयदिन्न-मायरिए' इस पद में 'म' कार अलाक्षणिक है। मूलम्-सुमुणिय-णिच्चाणिच्चं, सुमुणिय-सुत्तत्थ-धारयं वंदे । सब्भावुब्भावणया, तत्थं लोहिच्चणामाणं ॥४६॥ . छाया-सुज्ञात-नित्यानित्यं, सुज्ञात-सूत्रार्थ-धारकं वन्दे । सद्भावोद्भावनया, तथ्यं लोहित्यनामानम् ॥४६॥ पदार्थ-णिच्चाणिच्चं-नित्य-अनित्य रूपसे द्रव्यों को सुमुणिय-अच्छी तरह जानने वाले, सुमुणिय-भली प्रकार समझे हुए सुत्तत्थं-सूत्रार्थ को धारयं धारण करने वाले सम्भावुब्भावणया तत्थं यथावस्थित भावों को सम्यक प्रकार से प्ररूपण करने वाले, लोहिच्चणामाणं-लोहित्य नामक आचार्य को वंदे-वन्दना करता हूँ। भावार्थ--नित्य और अनित्य रूप से वस्तुतत्त्व को सम्यक्तया जानने वाले अर्थात् न्यायशास्त्र के गणमान्य पण्डित, सुविज्ञात सूत्रार्थ को धारण करनेवाले तथा भगवत् प्ररूपित सद्भावों का यथातथ्य प्रकाश करने वाले, ऐसे श्री लोहित्य नाम वाले आचार्य को प्रणाम करता हूँ। टीका-प्रस्तुत गाथा में आचार्य गोविन्द और भूतदिन्न के पश्चात् (३१) लोहित्य नामा आचार्य का जीवन-परिचय देकर, उन्हें वन्दना की गई है। वैसे तो सभी आचार्य महान् तत्त्ववेत्ता और पंडित थे, परन्तु उनमें तीन गुण विशिष्ट थे, जैसे सुमुणिय णिच्चाणि चं-वे पदार्थों के स्वरूप को भलीभाँति जानते थे, सर्व पदार्थ द्रव्यतः नित्य हैं और पर्याय से अनित्य । जैनधर्म न किसी पदार्थ को एकान्त नित्य मानता है और न अनित्य ही, पदार्थों का स्वरूप ही नित्यानित्य है ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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