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________________ श्रोता के चौदह दृष्टान्त श्रोता के चौदह दृष्टान्त शास्त्र के प्रारम्भ करने से पूर्व विघ्न-शमन के लिए मंगल-स्वरूप अर्हत् आदि की स्तुति करने के पश्चात् शास्त्रीय ज्ञान को ग्रहण करने योग्य कौन-सा श्रोता होता है ? और कौनसी परिषद् योग्य होती है ? इस दृष्टि को समक्ष रखते हुए पहिले १४ दृष्टान्तों द्वारा श्रोताओं का अधिकार वर्णन करते हुए सूत्रकार कथन करते हैं- .. मूलम्-सेलघण-कुडग-चालिणी, परिपुण्णग-हंस-महिस-मेसे य । मसग-जलूग-विराली, जाहग-गो-भेरि-भाभीरी ॥५१॥ छाया--शैल-घन-कुटक-चालनी, परिपूर्णक-हंस-महिष-मेषाश्च । __मशक-जलौक-बिडाली जाहक-गो-भेर्याऽऽभीर्यः ॥५१॥ भावार्थ-१ शैल-चिकना गोल पत्थर और पुष्करावर्त मेघ २, कुटक-घड़ा, ३ चालनी, ४ परिपूर्णक, ५ हंस, ६ महिष, ७ मेष, ८ मशक, ह जलौका-जोक, १० बिडाली-बिल्ली, ११ जाहक (चूहे की एक जाति-विशेष), १२ गौ, १३ भेरी और १४ आभीरी, इनके समान श्रोताजन होते हैं। टीका-अब सूत्रकर्ता श्रोताओं के विषय में चर्चा करते हैं। कोई भी उत्तम वस्तु अधिकारी को दी जाती है, अनधिकारी को नहीं। जो निविद्य है, अभिमानी है, वित्तषणा और भोगषणा में लुब्ध है, इन्द्रियों का दास है, अविनीत है, असंबद्धभाषी है, क्रोधी है, प्रमादी है, आलस्ययुक्त एवं विकथारत है लापरवाह है, गलियार बैल की तरह हठीला है, वह श्रुतज्ञान का अनधिकारी है अथवा दुष्ट, मूढ और हठी ये सब श्रुतज्ञान के अनधिकारी हैं। श्रतज्ञान के अधिकारी कौन हो सकते हैं ? इसके उत्तर में कहा जाता है जो उपहास नहीं करता. जो सदा जितेन्द्रिय बना रहता है, किसी के मर्म को, रहस्य को जनता में प्रकाशित नहीं करता, जो विशुद्ध चारित्र पालन करता है, जो व्रतों में अतिचार नहीं लगाता, अखण्ड चारित्री, जो रसगृद्धी नहीं, जो कभी कुपित नहीं होता, क्षमाशील है, सत्यप्रिय-सत्यरत इत्यादि गुणों से सम्पन्न है, वह शिक्षाशील एवं श्रुतज्ञान का अधिकारी है । जो उपर्युक्त गुणों से परिपूर्ण है, वह सुपात्र है । यदि कुछ न्यूनता है तो वह पात्र है। यदि दुष्ट, मूढ़ एवं हठी है तो वह कुपात्र है । जिसे सूत्ररुचि बिल्कुल नहीं, आभिग्रहिक तथा आभिनिवेशिक एवं मिथ्या-दृष्टि है, वह कुपात्र ही नहीं अपितु अपात्र है। यहाँ सूत्रकर्ता ने श्रोताओं को चौदह उपमाओं से उपमित किया, है जैसे (१) शैल-घन-शैल का अर्थ चिकना गोल पत्थर है तथा घन पुष्करावर्त मेघ को कहते हैं। मुद्गर्शल नामक पत्थर पर सात रात्रिदिन पर्यंत निरन्तर मूसलाधार वर्षा पड़ने पर भी वह अन्दर से बिल्कुल नहीं भीगता, प्रत्युत शुष्क ही रहता है। वह पत्थर चाहे सहस्रों वर्ष पानी में पड़ा रहे, फिर भी उसके अन्दर आर्द्रता नहीं पहुंचती। इसी प्रकार जिन आत्माओं को तीर्थकर अथवा गणधर आदि भी उप
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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