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________________ युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन धर्म में नित्य उद्यमशील रहते हैं, उन्हीं के मन में सदैव प्रसन्नता रहती है। जैसे तीन लोक में सूदुर्लभ चिन्तामणि रत्न मिलने से अर्थार्थी अतीव प्रसन्न होता है, वैसे ही चारित्र भी सर्व प्राणियों के लिए अतीव दुर्लभ है, उसे प्राप्त कर किसको प्रसन्नता नहीं होती? जो प्राणी उसे प्राप्त करके अरति, रति, भय, शोक, जुगुप्सा, वासना, कषाय इत्यादि विकारों का शिकार बन जाता है, तो समझना चाहिए कि उससे बढ़कर भाग्यहीन संसार में कोई नहीं है । प्रसन्नचित्त का होना भी साधुता का लक्षण है। ___ 'निच्चकालमुज्जुत्तं' अर्थात् नित्यकालं-सर्वकालमुधु क्तम्-अप्रमादिकम् –यह शिक्षा हर मुनि को ग्रहण करनी चाहिए कि मन की प्रसन्नता और अप्रमत्त भाव ये दोनों आत्म-विकास के लिए परमावश्यक है। मूलम्-वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्ज-नागहत्थीणं । __ वागरण-करण-भंगिय-कम्म-प्पयडी पहाणाणं ॥३४।। छाया-वर्द्धतां वाचकवंशो, यशोवंश आर्यनागहस्तिनाम् । व्याकरण-करण-भाङ्गिक-कर्मप्रकृति- प्रधानानाम् ॥३४॥ पदार्थ-वागरण -व्याकरण अथवा प्रश्नव्याकरण करण-पिण्डविशुद्धि आदि, भंगिय-भांगों के ज्ञाता, कम्मप्पयडी-कर्मप्रकृति प्ररूपणा करने में पहाणाणं-प्रधान, ऐसे अज्जनागहत्थीणं-आर्यनागहस्ती का वायगवंसो-वाचकवंश जसवंसों-यशवंश की तरह वड्वर--बढ़े। भावार्थ-जो व्याकरण-प्रश्नव्याकरण अथवा संस्कृत एवं प्राकृत शब्दानशासन में निष्णात, पिण्ड विशुद्धियों और भांगों के विशिष्टज्ञाता तथा कर्मप्रकृति-श्रुतरचना से या उनकी विशेष प्रकार से प्ररूपणा करने में प्रधान, ऐसे आचार्य नन्दिलक्षपण के पट्टधर शिष्य आचार्य श्री आर्यनागहस्तीजीका वाचकवंश मूत्तिमान् यशोवंश की भांति वृद्धि को प्राप्त हो । टीका-इस गाथा से हमें आर्य नागहस्तीजीका जीवन-परिचय स्पष्टतया मिलता है (२२) आर्य नागहस्तीजी, उस युग के अनुयोगधरों में धुरन्धर विद्वान् थे । उनका यशस्वी वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसा कहकर देववाचकजी ने अपनी मंगल कामना व्यक्त की है। हो सकता है, वाचक वंश का उद्भव आर्य नागहस्तीजी से ही हुआ हो। क्योंकि देववाचक ने इनसे पहले अन्य किसी वाचक का नामोल्लेख नहीं किया । जो शिष्यों को शास्त्राध्ययन कराते हैं, उन्हें वाचक कहते हैं । वाचक उपाध्याय पद का प्रतीक है। जसवंसो वढउ-इस पद का आशय है-जो वंश समुज्ज्ल यशप्रधान हो, उसी वंश की वृद्धि होती है। गाथा के उत्तरार्द्ध में उनकी विद्वता का परिचय दिया है। वागरण-वे संस्कृतव्याकरण, प्राकृतव्याकरण तथा प्रश्नव्याकरण आदि विषय और भाषा के अनन्यवेत्ता थे। करण-१ १. पिण्ड-विसोही, समिई, भावण, पडिमा य इंदिय-निरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव 'करणं'तु ||
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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