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नन्दी सूत्रम्
टीका - इस गाथा में आचार्य आर्यरक्षितजी को वन्दन किया गया है
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(२०) आर्यरक्षित तपस्वीराज होते हुए भी विद्वत्ता में बहुत आगे बढ़े हुए थे । बुद्धि स्वच्छ एवं निर्मल होने से आप ने नव पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। उनके दीक्षागुरु तोसली आचार्य हुए हैं। आर्यरक्षितजी का जीवन विशुद्ध चारित्र से समुज्ज्वल हो रहा था । जैसे गृहस्थ रत्नों के डिब्बे की रक्षा सतर्कता एवं सावधानी से करते हैं, वैसे ही उन्होंने अनुयोग की रक्षा की। इसके विषय में शीलांकाचार्य अपनी सूत्रकृतांग की वृत्ति में लिखते हैं कि
“श्रागमश्च द्वादशांगादिरूपः सोऽप्या ये रक्षित मिश्र रैदयुगीन पुरुषानुग्रह बुद्ध्या चरण- करण- द्रव्य धर्मकथागणितानुयोगभेदाच्चतुर्धा व्यवस्थापितः ।”
अर्थात् आगम- द्वादश अंगस्वरूप हैं, किन्तु आर्य रक्षितजी ने आजकल के पुरुषों पर, उपकार की बुद्धि से, उसे चरण-करणानुयोग, द्रव्यानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग इस प्रकार से आगमों को चार भेदों में विभक्त कर दिया है। अतः यह आचार्य श्रुतज्ञान के वेत्ता होने से आगमों की रक्षा करने में दत्तचित्त थे । इसलिए गाथाकार ने गाथा के उत्तरार्ध में ये पद दिए हैं, जैसे कि - रयण करण्डगभूश्रो, श्रणुत्रोगो रक्खो जेहिं - जिन्होने रत्नकरण्ड ( रत्नों की पेटी) के समान अनुयोग की रक्षा की। जिसकी जैसी योग्यता, जिज्ञासा और बुद्धिबल हो, उसे पहले उसी अनुयोग का अध्ययन करना चाहिए और अध्यापन भी तथा उपदेश एवं शिक्षा भी तदनुरूप ही देनी चाहिए। इससे गुरु-शिष्य दोनों को सुविधा रहती है ।
आजकल के विद्वानों का यह भी अभिमत है कि अनुयोगद्वार सूत्र के रचयिता आर्यरक्षितजी हुए । अतः उन्हें श्रद्धावनत होकर वन्दन किया है ।
मूलम् - णाणमिदंसणम्मिय, तव विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जं नंदिल - खवणं, सिरसा वंदे पसन्नसणं ।। ३३ ।। छाया - ज्ञाने दर्शने च, तपो - विनये नित्यकालमुद्युक्तम् । आर्य नन्दिल-क्षपणं, शिरसा वन्दे प्रसन्न - मनसम् ॥३३॥
पदार्थ - नाणम्मि — ज्ञान में, दंसणम्मि-दर्शन में य— और तवविणए तप और विनय में च्चिकालं - नित्यकाल-प्रतिक्षण उज्जुत्तं - उद्युक्त तत्पर तथा पसन्नमणं - राग द्वेष न होने से प्रसन्नचित्त रहने वाले अज्जं नंदिल खवणं - आर्य नंदिल क्षपण को सिरसा वंदे-मस्तक से वन्दन करता हूं ।
भावार्थ - जो ज्ञान-दर्शन में और तपश्चरण में तथा विनयादि गुणों में सर्वदा अप्रमादी थे, समाहितचित थे, ऐसे गुणों से सम्पन्न आर्य नन्दिल क्षपण को सिर झुका कर वन्दन करता हूँ।
टीका - इस गाथा में आर्य नन्दिल क्षपण के विषय में वर्णन किया है, जैसे कि
(२१) आर्यन न्दिलक्षपण सदैव ज्ञान, दर्शन, तप, विनय, और चारित्र - पालन में उद्यत रहते थे, जिनका मन सदा प्रसन्न रहता था, इसलिए गाथाकार ने पसन्नमणं पद दिया है। जो मुनि निश्चय पूर्वक व्यवहार