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युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन छाया-वन्दे आर्यधर्म, ततो वन्दे च भद्रगुप्तं च ।
____ ततश्चार्यवज्र, तपोनियमगुणैर्वज्रसमम् ।।३१।। पदार्थ—पुनः अजधम्म-आर्य धर्माचार्य को, य—और, तत्तो-फिर, भद्दगुत्तं-श्रीभद्रगुप्तजी को,वंदामि-वन्दना करता हूँ। च-और तत्तो-उसके बाद तव-तप नियम-नियम आदि, गुणेहि-गुणों से, वइर-वज्र के, समं-समान, अज्जवइरं—आर्यवज्र स्वामीजी को वन्दन करता हूं। .
भावार्थ-तत्पश्चात् आचार्य श्री आर्यधर्मजी महाराज को और उनके पश्चात् आचार्य श्रीभद्रगुप्तजी महाराज को वन्दन करता हूं। उसके बाद तप-नियम आदि गुणों से सम्पन्न, वज्र के समान दृढ़ आचार्य श्रीआर्यवज्रस्वामीजी महाराज को नमन करता हूँ।
टीका-इस गाथा में युगप्रधान तीन आचार्यों का क्रमशः परिचय दिया गया है
(१७, १८, १९) आर्यधर्म, भद्रगुप्त और आर्य वज्रस्वामी ये तीनों आचार्य तप-नियम और गुणों से समृद्ध, थे। चतुर्विध श्रीसंघ के लिए आचार्य श्रद्धास्पद होते हैं। वे स्व-कल्याण के साथ-साथ दूसरोंका भी कल्याण करते हैं। वे श्रीसंघ या विश्व के लिए मार्ग-प्रदर्शन के रूप में प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। आचार्य तीर्थकर के पदचिन्हों पर चलते हैं तथा उनका अनुसरण श्रीसंघ करता है।
___जनता पर जैसे न्यायनीतिमान राजा शासन करता है, वैसे ही आध्यात्मिक साधकों पर आचार्यदेव का न्याय-नीति-सम्पन्न शासन होता है। वे मार्ग-प्रदर्शक और श्रीसंघ के रक्षक होते हैं । आर्यधर्मजी मूर्तिमान धर्म थे । श्रीभद्रगुप्त ने अपने को बुराइयों से भली-भांति गुप्त रखा हुआ था। आर्य वज्रस्वामीजी का तप-नियम और गुणों से वज्र के समान महत्वपूर्ण जीवन था। आर्यवज्रस्वामीजी वीर निर्वाण . सं० छठी शती में देवगति को प्राप्त हुए।
यह गाथा वृत्तिकार ने प्रक्षेपक मानकर ग्रहण नहीं की, किन्तु प्राचीन प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध होती है।
मूलम्-वंदामि अज्जरक्खिय-खवणे, रक्खिय-चारित्तसव्वस्से ।
__ रयण-करंडग-भूओ,अणुप्रोगो रक्खिो जेहिं ॥३२॥ छाया, वन्दे आर्यरक्षित-क्षपणान्, रक्षितचारित्रसर्वस्वान् ।
__· रत्न-करण्डकभूतो-ऽनुयोगो रक्षितो यैः ॥३२॥ पदार्थ जेहिं—जिन्हों ने चारित्तसव्वस्से–स्व तथा सभी संयमियों के चारित्र-सर्वस्व की रक्खियरक्षा की तथा जिन्हों ने रयण-करंडगभूत्रो-रत्नों की पेटी के समान अणुप्रोगो-अनुयोग की रक्खियरक्षा की, उन खवण-क्षपण-तपस्वीराट अज्जरक्खिय--आर्यरक्षित जी को वंदामि--वन्दना करता हूँ।
__ भावार्थ-जिन्होंने तत्कालीन सभी संयमीमुनियों और अपने सर्वस्व चारित्र-संयम की रक्षा की, और जिन्होंने रत्नों की पेटी के सदृश अनुयोग की रक्षा की। उन तपस्वीराड् आचार्य श्रीआर्यरक्षितजी को वन्दन करता हूँ।