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________________ नन्दीसूत्रम् त्रिसमुद्रख्यात-कीर्ति-इस पद से यह भी ध्वनित होता है कि भारतवर्ष की सीमा तीन दिशा ओं में समुद्र-पर्यन्त है। मूलम्-भणगं करगं झरगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं ।। वंदामि अज्जमगुं, सूयसागरपारगं धीरं ॥३०॥ छाया-भाणक-कारकं ध्यातारं, प्रभावकं ज्ञानदर्शनगुणानाम् । ' वन्दे आर्यमंगु, श्रुतसागरपारगं धीरम् ॥३०॥ पदार्थ भणगं–कालिक सूत्रों के अध्ययन करनेवाले, करगं-सूत्रानुसार क्रिया-काण्ड करनेवाले, झरगं-धर्म-ध्यान के ध्याता, णाण-दसणगुणाणं-ज्ञान-दर्शन और चारित्र के गुणों का, पभावगं--- उद्योत करनेवाले, और सूयसागरपारगं-श्रुतसागर के पारगामी, धीर-धैर्य आदि गुण-सम्पन्न, अज्ज मंगु-आर्यमंगुजी को, वंदामि-वन्दन करता हूँ। भावार्थ-सदैव कालिक आदि सूत्रों का स्वाध्याय करने वाले, शास्त्रानुसार क्रियाकलाप करने वाले, धर्म-ध्यान ध्याने वाले, ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि रत्नत्रय के गुणों को दिपानेवाले तथा श्रुतरूप सागर के पारगामी तथा धीरता आदि गुणों के आकर आचार्य श्री आर्यमंगुजी महाराज को नमस्कार करता हूँ। टीका-इस गाथा में स्तुतिकार ने आचार्य समुद्र के पश्चात (२६) श्री आर्य मंगुजी स्वामी के गुणों का दिग्दर्शन कराया है। कालिक, उत्कालिक, मूल, छेद आदि, सूत्र तथा अर्थ के अध्ययन और अध्यापन करनेवाले, आगमोक्त क्रिया-कलाप करनेवाले, धर्मध्यान के ध्याता, सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों से युक्त श्रुतसागर के पारगामी इत्यादि गुणों से युक्त आर्यमंगु आचार्य को स्तुतिकार ने भावभीनी वंदना की है। इसका फलितार्थ यह हुआ है कि वन्दना और स्तुति गुणों की होती है। जैनधर्म में व्यक्ति की पूजा नहीं अपितु गुणों की पूजा होती है। भणगं-इस पद से वाचना आदि स्वाध्याय को सूचित किया है । करगं-इस विशेषण से सूत्रोक्त क्रिया-कलाप के करने की सूचना दी गई है। झरगं-ध्यातारं—इस कथन से, ध्यान शब्द की सिद्धि की गई है, क्योंकि मोक्ष प्राप्त करने का मुख्य साधन ध्यान ही है। पभावगं णाणदसणगुणाणं-इस पद से सिद्ध होता है कि वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों गुणों के दिपाने और प्रवचन-प्रभावना करने में सिद्धहस्त थे । ज्ञानदर्शन ये आत्मा के निजी गुण हैं, इन पर भी प्रकाश डाला गया है । सुयसागरपारगं-इस विशेषण से उन्हें आगमों के लौकिक तथा लोकोत्तरिक श्रत के प्रखर विद्वान सूचित किया गया है। धीरे-धीर पद से 'धिया राजत इति धोरः'- उन्हें बुद्धिमान् और समय के ज्ञाता सिद्ध किया गया है। मूलम्-वंदामि अज्जधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च । । तत्तो य अज्जवइरं, तव-नियम-गुणेहिं वइरसमं ॥३१॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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